Name: | बिंदेश्वर महादेव मंदिर / बिनसर महादेव मंदिर (Bindeshwar Mahadev Temple or Binsar Devta or just Binsar) |
Location: | Thalisain, Pauri Garhwal Disctrict, Uttarakhand, India |
Deity: | Lord Shiva |
Affiliation: | Hinduism |
Completed: | 9th / 10th century |
Constructed By: | Maharaja Prithu |
पांडवों द्वारा स्थापित गढ़वाल का रहस्यमयी बिंदेश्वर महादेव मंदिर: रानी कर्णावती ने शाहजहाँ की सेना को हराया, नाक कटने से लज्जित सेनापति ने कर ली थी आत्महत्या
हिमालयन गजेटियर में एडविन एटकिंसन ने लिखा है कि महारानी कर्णावती पर्वत की चोटी पर मौजूद बिनसर मंदिर में रहकर सेना का संचालन कर रही थीं। एक समय ऐसा भी आया, जब उनकी स्थिति कमजोर होने लगी तब अचानक ओलावृष्टि शुरू हो गई। इससे दुश्मन पीछे हटने पर मजबूर हो गया।
बिंदेश्वर महादेव मंदिर: उत्तराखंड (Uttarakhand) को देवभूमि कहा जाता है और यहाँ एक से बढ़ एक मानव को दिए गए प्रकृति के उपहार हैं। कलकल करतीं नदियाँ, हरियाली से आच्छादित भूमि, स्वर्ग को छूते प्रतीत होने वाले पहाड़, सुंदर एवं मनोरम घाटियाँ लोगों को अपनी तरफ आकृष्ट करती हैं। इसके साथ ही यहाँ अति प्राचीन मंदिरों की एक पूरी श्रृंखला भी है। इन्हीं में से एक है बिंदेश्वर महादेव मंदिर (लोक भाषा में बिनसर महादेव) (Bindeshwar or Binsar Mahadev) है। इस मंदिर से महारानी कर्णावती (Maharani Karnavati) का भी इतिहास जुड़ा है, जिन्होंने मुगलों की हेकड़ी निकाल दी थी।
उत्तराखंड के अल्मोड़ा (Almora) जिले में दूधातोली पर्वत श्रृंखला की चोटी पर देवदार, ओक और अन्य वृक्षों के घने जंगलों में 2,500 मीटर (8,202 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है बिनसर महादेव का मंदिर। यह दिव्यता, भव्यता और मनमोहकता के लिए विख्यात है।
कहा जाता है कि स्वर्गारोहन के दौरान पांडवों ने अंतिम बार यहाँ महादेव को स्थापित कर उनकी पूजा की थी। तब से इस मंदिर का महात्म्य बना हुआ है। यहाँ आने वाले भक्तों की मनोकामना भगवान महादेव जरूर पूरी करते हैं।
Bindeshwar Mahadev Temple, also known as Binsar Devta or simply Binsar, is an ancient Hindu rock temple dedicated to Lord Shiva, worshiped as Bindeshwar, a popular deity in this region. At an altitude of 2480 meters above mean sea level, it is situated in Bisaona village, which falls in the Chauthan region of Thalisain Block in the Pauri Garhwal District of the Indian state of Uttarakhand. This temple is set amidst dense forests of birch, deodar and rhododendron. The original temple structure held great archaeological significance, but it was demolished by politicians in order to create a new structure. The central chamber of the temple features the idols of Ganesha, Shiva-Parvati and Mahishasuramardini. A fair is organized there on Vaikuntha Chaturdashi every year.
कहा जाता है कि गढ़वाल साम्राज्य के महाराजा महिपत शाह (Raja Mahipat Shah) के युद्ध में वीरगति प्राप्त करने के बाद राज्य की बागडोर महारानी कर्णावती (मेवाड़ के महाराणा सांगा की पत्नी कर्णावती या कर्मावती से अलग हैं ये) के हाथों में आ गया था। एक महिला को राज्य चलाते देख मुगलों ने आक्रमण कर दिया।
उस दौरान महारानी कर्णावती ने इस बिनसर मंदिर में रहकर अपने दुश्मनों का सामना किया था। कहा जाता है कि जब उनकी स्थिति कमजोर पड़ने लगी, तभी अचानक ओलावृष्टि (ओला गिरना) होने लगी। बड़े-बड़े ओलों की मार से परेशान दुश्मन भागने को मजबूर हो गए।
विख्यात अंग्रेज़ विद्वान एडविन एटकिंसन (Edwin Thomas Atkinson) ने ‘हिमालयन गजेटियर’ (Himalayan Gazetteer) लिखा है कि इसके बाद महारानी ने इसे अपने कुलदेवता का आशीर्वाद समझा और वीणेश्वर महादेव (जो कालांतर में बिनसर महादेव हो गया) का जीर्णोद्धार हो गया।
महाराजा पृथु, पांडव और बिनसर मंदिर की स्थापना
इस मंदिर को लेकर कई कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यहाँ से शिवलिंग को महाराज पृथु (Raja Prithu) ने अपने पिता बिंदु की याद में स्थापित कराया था और इसका नाम बिंदेश्वर महादेव रखा था।
वहीं, स्थानीय लोगों का कहना है कि बिनसर महादेव पांडवों ने स्थापित किया था। कहा जाता है कि पाँचों पांडव जब अपनी पत्नी सहित द्रौपदी के साथ स्वर्गारोहण के लिए जाने लगे तो उससे पहले महादेव का यही पूजन किया था। यह भी कहा जाता है कि पांडवों ने यहाँ पर अपना अज्ञातवास गुजारा था। यहाँ पर आज भी भीमघट नाम की एक शिला है।
बिनसर महादेव शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग और आदिकाल का बताया जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, स्थानीय लोगों ने देखा की एक गाय रोज एक पत्थर पर दूध गिराती है। गुस्साए ग्रामीणों ने गाय को धक्का देकर उस स्थान पर कुल्हाड़ी से वार किया तो खून निकलने लगा। कुल्हाड़ी का यह निशान आज भी उस शिवलिंग पर है। कहा जाता है कि उस बाद वहाँ रहने वाले मनिहार लोग गाँव छोड़ कर चले। आज भी इस मंदिर के आसपास दूर तक मानव बस्ती नहीं है।
मंदिर का वर्तमान स्वरूप 9 – 10वीं सदी में बनाया गया बताया जाता है। इस मंदिर में भगवान गणेश, हर गौरी और महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ स्थापित की गई है। मंदिर की स्थापत्य कला के लिए जाना जाता है। महेशमर्दिनी की मूर्ति 9 वीं शताब्दी की तारीख में ‘नगरीलिपी’ में ग्रंथों के साथ उत्कीर्ण है।
मंदिर को रहस्यमयी बताया जाता है। कहा जाता है कि इसके गर्भगृह में ठंडे पानी का एक गोलाकार, छोटा और गहरा जलाशय था, जो एक कुएँ जैसा दिखता था। इसके चारों ओर अनेक मूर्तियाँ रखी हुई थीं। जलाशय के अंदर एक सांप के रहने की बात कही गई थी। हालाँकि, इस कुएँ को अब पाट दिया गया है। इसमें एक अज्ञात देवता की मूर्ति भी बताई जाती है।
मुगलों का नाक काटने वाली महारानी कर्णावती
सन 1622 में महाराजा श्याम शाह की मौत अलकनंदा में डूबने के कारण होगई। उसके बाद उनके पुत्र महाराजा महिपत शाह ने मुगलों की सत्ता को कई बार चुनौती दी। इतना ही नहीं, उन्होंने तिब्बत तीन बार आक्रमण किया, लेकिन 1631 में में वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए।
उस समय उनके बेटे पृथ्वी शाह की उम्र सिर्फ 7 साल थी। ऐसे राज्य की बागडोर महारानी कर्णावती के हाथों में आ गई। महारानी कर्णावती हिमाचल के राजपरिवार से थीं, इसलिए शासन कला में वह सिद्धहस्त थीं। लेकिन, एक महिला को शासन करते देख काँगड़ा का मुगल सूबेदार नजाबत खान (Nazabat Khan) ने मुगल बादशाह शाहजहाँ (Mughal Ruler Shahjahan) से आज्ञा लेकर 1635 में गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पर आक्रमण करने के लिए बढ़ चला।
17वीं शताब्दी भारत आए इटली के यात्री निकोलाओ मानूची ने कर्णावती और मुगलों के संघर्ष के बारे में विस्तार लिखा है। उसने लिखा है कि मुगल सैनिक जब शिवालिक की तलहटी से ऊपर चढ़ना शुरू किया, तब गढ़वाली सैनिकों ने गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया।
हिमालयन गजेटियर में अंग्रेज़ विद्वान एडविन एटकिंसन ने लिखा है कि महारानी कर्णावती पर्वत की चोटी पर मौजूद बिनसर मंदिर से दुश्मनों के खिलाफ सेना का संचालनकर रही थीं। एक समय ऐसा भी आया, जब उनकी स्थिति कमजोर होने लगी तब अचानक ओलावृष्टि शुरू हो गई। इससे दुश्मन पीछे हटने पर मजबूर हो गया। महारानी ने इसे भगवान का आशीर्वाद समझा।
मुगल सैनिक भागकर पहाड़ियों की तलहटी में पहुँच गए। वहाँ पहले से छिपे सैनिकों ने उन्हें घेर लिया और महारानी कर्णावती के आदेश पर घाटी के दोनों तरफ के रास्ते बंद करा दिए। लगभग 50 हजार मुगल सैनिक घाटियों में फँसकर रह गए। इसके बाद सेनापति नजाबत खान ने शांति प्रस्ताव भेजा, लेकिन महारानी तैयार नहीं हुईं। रसद खत्म होने के बाद नजाबत खान ने महारानी से वापस लौटने की इजाजत में माँगी। इसके लिए महारानी ने एक शर्त रखी।
महारानी कर्णावती ने नजाबत खान को संदेश भेजवाया कि उसके सैनिक वापस लौट सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। मुगल सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर नाक कटवा कर वापस लौट चले। इस घटना से लज्जित होकर नजाबत खान ने रास्ते में आत्महत्या कर ली। वहीं शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कभी आक्रमण नहीं करने का फरमान जारी कर दिया।
इस घटना के बाद महारानी कर्णावती को नक्कटी रानी यानी दुश्मन की नाक काट लेने वाली रानी कहकर संबोधित किया जाने लगा। तंत्र-मंत्र से संबंधित एक अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ‘सांवरी ग्रंथ’ में उन्हें माता कर्णावती कहा गया है। वहीं, मुगल दरबारों की वृस्तांत वाली पुस्तक ‘मआसिर-उल-उमरा’ और यूरोपीय इतिहासकार टेवर्नियर ने अपनी किताबों में महारानी कर्णावती को मुगलों की हेकड़ी निकाल वाली रानी कहा गया है।
बिंदेश्वर महादेव मंदिर: जनकल्याण के लिए महारानी ने कई काम किए
1646 में पृथ्वी शाह को गद्दी सौंपी गई, तब तक महारानी कर्णावती ने लोकोपकार के लिए अनेक काम किए। सबसे पहले उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उन्होंने राज्य में कृषि और सामाजिक कल्याण के लिए कई कार्य किए। उन्होंने राजपुर की नहर बनवाई। देहरादून में अजबपुर, करनपुर, कौलागढ़, भोगपुर जैसे आधुनिक नगर बसाए, जो बाद में मुहल्ले बन गए। नवादा में उनका बनवाया हुआ महल आज भी खंडहर के रूप में मौजूद है।
वहीं, बिनसर महादेव आज श्रद्धा का एक केंद्र बन चुका है। गढ़वाल सहित हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले लोग इस मंदिर में एक बार जरूर जाना चाहते हैं। यहाँ दर्शन करने जाने के लिए जब यात्रा शुरू होती है तो उसे ‘जात्रा’ कहा जाता है। जात्रा के दौरान स्त्री और पुरुष लोकगीत गाते हैं।