आज कल आपने ऐसे कई मंदिरों के बारे में सुना होगा, जिनके बारे में मान्यताएं प्रचलित हैं कि वहां साक्षात भगवान का वास होता है। लेकिन क्या आपने कभी ये सुना है कि भगवान का बसेरा किसी तालाब आदि में भी हो सकता है। जी हां, आप सही पढ़ रहे हैं। अब इतना तो सब जानते ही हैं कि भगवान विष्णु का निवास क्षीर सागर में है और ये शेषनाग पर निवास करते हैं। लेकिन कलियुग में भी भगवान आज एक तालाब में निवास करते हैं इस बात पर शायद ही किसी को यकीन होगा। तो चलिए आज आपको विस्तार से एक ऐसी जगह के बारे में बताते हैं जहां एक तालाब में श्रीहरि दर्शन देते हैं। बता दें कि इस जगह की प्रसिद्धि देशभर में फैली हुई है।
भारत देश में तो ऐसे बहुत से मंदिर जिनकी सुंदरता हमें उनकी तरफ आकर्षित करते हैं। लेकिन आज हम भारत नहीं बल्कि नेपाल के काठमांडू से लगभग 10 कि.मी दूर स्थित मंदिर की बात कर रहे हैं। बता दें कि ये मंदिर नेपाल के शिवपुरी में स्थित, जो भगवान विष्णु को समर्पित है। इसे बुढानिलकंठ मंदिर के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि ये मंदिर यहं का सबसे भव्य, सुंदर और बड़ा मंदिर है। यहां मंदिर में विष्णु जी की सोती हुई प्रतिमा विराजित हैं।
माना जाता है कि मंदिर में विराजमान इस मूर्ति की लंबाई लगभग 5 मीटर है और तालाब की लंबाई 13 मीटर है। ये तालाब ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतिनिधित्व करता है। इस मूर्ति को देखने पर इसकी भव्यता का अहसास होता है। तालाब में स्थित विष्णु जी की मूर्ति शेष नाग की कुंडली में विराजित हैं, मूर्ति में विष्णु जी के पैर पार हो गए हैं और बाकी के ग्यारह सिर उनके सिर से टकराते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रतिमा में विष्णु जी के चार हाथ उनके दिव्य गुणों को दर्शाते हैं। बता दें पहला चक्र मन का प्रतिनिधित्व करना, शंख चार तत्व, कमल का फूल चलती ब्रह्मांड और गदा प्रधान ज्ञान को दर्शा रही है।
भगवान विष्णु के साथ-साथ शिव शंकर भी है विराजमान:
जहां मंदिर में भगवान विष्णु प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में विराजमान हैं तो वहीं भोलेनाथ पानी में अप्रत्यक्ष रूप से विराजित हैं। माना जाता है कि बुढानिलकंठ मंदिर का पानी गोसाईकुंड में उत्पन्न हुआ था। लोगों का मानना है कि अगस्त में होने वाले वार्षिक शिव उत्सव के दौरान झील के पानी के नीचे शिव की एक छवि देखने को मिलती है।
पौराणिक कथा:
एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय समुद्र से विष निकला था तो सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए शिव जी ने इस विष को अपने कंठ यानि गले में ले लिया था। जिस कारण उनका गला नीला हो गया था। इस कारण ही भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाने लगा।
जब जहर के कारण उनका गला जलने लगा तो वे काठमांडू के उत्तर की सीमा की ओर गए और झील बनाने के लिए त्रिशूल से एक पहाड़ पर वार किया, जिससे एक झील बनी। कहते हैं इसी झील के पानी से उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। कलियुग में नेपाल की झील को गोसाईकुंड के नाम से जाना जाता है।