एक कथा के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की तपस्या की थी। माना जाता है कि देवी गंगा ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवों ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति के लिए इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यहां शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। शीतकाल के शुरुआत में जब गंगा का स्तर काफी नीचे चला जाता है तो इस शिवलिंग के दर्शन होते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओं को फैला कर मां गंगा के वेग को थामने के लिए बैठ गए थे। उन्होंने मां गंगा के जल को अपनी घुंघराली जटाओं में लपेट दिया। प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था। भागीरथी शिला के पास एक मंच था, जहां यात्रा मौसम में तीन चार महीनों के लिए देवी देवताओं की प्रतिमाअों को रख दिया जाता था। इन प्रतिमाअों को गांवो के विभिन्न मंदिर श्याम प्रयाग, गंगा प्रयाग, धराली और मुखबा से लाया जाता था और यात्रा में बाद वापस लौटा दिया जाता था
गंगोत्री धाम से करीब 19 कि.मी. की दूरी पर गौमुख स्थित है। यह गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना है। कहा जाता है कि यहां के बर्फीले जल में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिल जाती है। देवी गंगा के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा 18वी शताब्दी के शुरुआत में किया गया था। मंदिर में प्रबंध के लिए सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गांवों से पंडों को भी नियुक्त किया। बता दें कि अक्षय तृतीया से गंगोत्री अौर यमुनोत्री धाम, केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुल जाते हैं।