कथा
कहा जाता है जब भगवान विष्णु ने मां सती के जलते हुए शरीर के 51 हिस्से कर दिए थे तब जाकर शिव जी का क्रोध शांत हुआ था और उन्होंने तांडव करना भी बंद कर दिया था। भगवान विष्णु द्वारा किये गए देवी सती के शरीर के 51 हिस्से भारत उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में जा गिरे थे। ऐसा माना जाता है की इस स्थान पर देवी सती का पैर गिर था और तभी से इस स्थान को भी महत्वपूर्ण 51 शक्ति पीठों में से एक माना जाने लगा।
चिंतपूर्णी में निवास करने वाली देवी को छिन्नमस्तिका के नाम से भी जाना जाता है। मारकंडे पुराण के अनुसार, देवी चंडी ने राक्षसों को एक भीषण युद्ध में पराजित कर दिया था परन्तु उनकी दो योगिनियां (जया और विजया) युद्ध समाप्त होने के पश्चात भी रक्त की प्यासी थी, जया और विजया को शांत करने के लिए की देवी चंडी ने अपना सिर काट लिया और उनकी खून प्यास बुझाई थी। इसलिए वो अपने काटे हुए सिर को अपने हाथो में पकडे दिखाई देती है, उनकी गर्दन की धमनियों में से निकल रही रक्त की धाराओं को उनके दोनों तरफ मौजूद दो नग्न योगिनियां पी रही हैं। छिन्नमस्ता (बिना सिर वाली देवी) एक लौकिक शक्ति है जो ईमानदार और समर्पित योगियों को उनका मन भंग करने में मदद करती है, जिसमे सभी पूर्वाग्रह विचारों, संलग्नक और प्रति दृष्टिकोण शुद्ध दिव्य चेतना में सम्मिलित होते है। सिर को काटने का अर्थ है मस्तिष्क को धड़ से अलग कारण होता है, जो चेतना की स्वतंत्रता है।
शिवजी करते हैं छिन्नमस्तिका देवी की रक्षा
पौराणिक परंपराओं के अनुसार, शिव (रूद्र महादेव) जी छिन्नमस्तिका देवी की रक्षा चारों दिशाओं से करते है। ये चार शिव मंदिर निम्न है – पूर्व के कालेश्वर महादेव, पश्चिम के नारायण महादेव, उत्तर के मुचकुंद महादेव और दक्षिण के शिव बारी। ये सभी मंदिर चिंतपूर्णी मंदिर से बराबर की दुरी पर स्थित है। कहा जाता है चिंतपूर्णी, देवी छिन्नमस्तिका का निवास स्थान है।
कहा जाता है की प्राचीन काल में पंडित माई दास, एक सारस्वत ब्राह्मण, ने छपरा गांव में माता चिंतपूर्णी देवी के इस मंदिर की स्थापना की थी। समय के साथ इस स्थान का नाम चिंतपूर्णी पड़ गया। उनके वंशज आज भी चिंतपूर्णी में रहते है और चिंतपूर्णी मंदिर में की पूजा अर्चना आदि का आयोजन करते है। ये वंशज इस मंदिर के आधिकारिक पुजारी है।