महाबलिपुरम, तमिलनाडु

महाबलिपुरम, तमिलनाडु

तमिलनाडु राज्य की राजधानी चेन्नई से करीब 60 कि.मी. दक्षिण की ओर सागर तट पर स्थित है – महाबलिपुरम। यह स्थान अपने पुरातन मंदिरों तथा स्थापत्य कला के वैभव के लिए भारत ही नहीं, संपूर्ण जगत में मशहूर है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि पत्थरों को तराश कर कलात्मक मंदिरों तथा गुफाओं के निर्माण का काम पल्लव राजवंश के राजाओं के समय हुआ था। पल्लव वंश का राजकाल सन् 600 से 750 ई. के मध्य माना जाता है। महेन्द्र वर्मा जैसे एक राजा ने नहीं बल्कि एक के बाद एक अनेक पल्लव राजाओं ने निर्माण कार्य में रूचि दिखाई और वर्षों तक निपुण कारीगरों के अथक परिश्रम से निर्माण को पूरा करने का प्रयत्न किया।

पुराने समय में, विशेषकर पल्लव राजाओं के समय में आपसी विवाद का फैसला मल्लयुद्ध के द्वारा भी किया जाता था, अतएव मल्लयुद्ध में विजय की लालसा पूरी करने के लिए पुरुष वर्ग शारीरिक शक्ति बनाए रखना चाहता था। इसके लिए अभ्यास के अलावा देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना खूब होती थी। विजयी होने पर राजा अपने उल्लास का आयोजन करता था। साथ ही अपनी उपलब्धि को चिरस्मरणीय रखने के लिए मंदिरों तथा गुफाओं का निर्माण भी करवाता था।

महाबलिपुरम प्रचलित तमिल नाम मामल्लापुरम का दूसरा रूप है जिसका अर्थ होता है, मल्लों या पहलवानों की नगरी। उस प्राचीन वैभव का गौरवपूर्ण अवशेष अब भी सागर तट के पास मौजूद है, जिसकी स्थापत्य-कला को देखकर आज के इंजीनियर भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। सैंकड़ों वर्ष पहले जबकि कारीगरों के पास लोहे की छेनी और हथौड़े के अलावा और कोई विशेष औजार नहीं रहा होगा, कठिन ग्रेनाइट पत्थरों को तराश कर सजीव दिखने वाली मूर्तियां बना देना सचमुच आश्चर्यजनक है।

महाबलिपुरम के मन्दिरों के निर्माण की एक और विशेषता यह भी है कि पत्थर के टुकड़े कहीं दूसरी जगह से नहीं लाए गए, बल्कि वहीं पर स्थित पहाडिय़ों और पत्थर के टीलों को तराश करके मूर्तियों और विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों का निर्माण किया गया है।

यहां का सबसे महत्वपूर्ण स्थल पल्लव राजाओं द्वारा निर्मित सागर तट मंदिर है। बिल्कुल समुद्र के किनारे जहां बंगाल की खाड़ी से उठकर गहरे नीले रंग की लहरें मंदिर की दीवारों से टकरा कर सफेद झाग उगलती रहती हैं।

एक छोटी पहाड़ी को तराश कर बनाया गया सैंकड़ों वर्ष पुराना मन्दिर दो भागों में विभाजित है। प्रथम में शेष शायी विष्णु की प्रतिमा है तथा दूसरे में शिवलिंग स्थापित हैं। ग्रेनाइट की कठोर चट्टानों को भी क्रूर काल तथा सागरीय हवा और पानी के प्रहारों ने घिस कर समाप्त करने की कोशिश की है। मुख्य मन्दिर के गर्भगृह में स्थित शिवलिंग को किसी आक्रमणकारी ने तोडऩे की चेष्टा की थी, लेकिन उसका ऊपरी भाग ही ध्वस्त हो सका, अवशेष अब तक वहीं स्थित है। मूर्त भंग होने की वजह से अब इस मंदिर में पूजा-अर्चना नहीं होती है। फिर भी अपने गौरवपूर्ण अतीत के लिए यह वंदनीय है जहां प्रतिदिन दूर-दूर से हजारों यात्री इसके दर्शन के लिए आते रहते हैं।

महाबलिपुरम में सागर से कुछ दूर हटकर छोटी-सी पहाड़ी ढालकों को तराश कर उन पर अनेक देवी-देवताओं और जीव-जंतुओं की मूर्तियां खोदी गई हैं जिनमें अनेक पौराणिक कथाओं की झांकी कलात्मक रूप में उपस्थित की गई है। प्रस्तर भित्ति पर खुदाई से निर्मित यह शिल्प-खंड संसार में सबसे विशाल माना जाता है।

इसमें कई देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ ही जीव-जंतुओं और नर-नारियों की सुडौल मूर्तियां हैं। एक ओर तपस्या में तीन पुरुष मूर्त हैं, जिसके साथ महादेव शिव आशीर्वाद देते दिखाए गए हैं, दूसरी ओर जानवरों सहित गंगा के प्रवाह को प्रदर्शित किया गया है। ऐसी धारणा है कि अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए भगीरथ द्वारा की गई घोर तपस्या और बाद में शिव की जटाओं के मध्य से गंगावतरण की घटनाओं को प्रदर्शित किया गया है लेकिन कई लोग यह मानते हैं कि यह दृश्य अर्जुन की तपस्या का है जिस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने पाशुपत अस्त्र प्रदान किया था।

इस भित्ति-दृश्य के साथ ही दो गुफाएं हैं, जिनमें देवी दुर्गा के महिषासुर मर्दिनी रूप को प्रदर्शित किया गया है। दूसरे में श्रीकृष्ण जी का गोवद्र्धन गिरिधारी का लोकहितकारी रूप प्रतिछवित है। जलप्लावन के भय से सुरक्षित जीवधारियों की भाव भंगिमा देखकर कलाकार की निपुणता की बरबस सराहना करनी पड़ती है। यहां की कुछ मूर्तियों के नासिकाग्र तथा गुंफित केश राशि को देखकर यूनानी प्रभाव का संकेत मिलता है, जोकि संभव है-तत्कालीन युग में यूनानी कलाकारों के आगमन के कारण हुआ। चूंकि उस समय सागर तट पर स्थित महाबलिपुरम पराक्रमी राजाओं की राजधानी के अलावा मुख्य बंदरगाह और व्यापार का केंद्र भी था।

इन गुफाओं से कुछ ही दूरी पर दक्षिण की ओर प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला के प्रतीक स्वरूप 5 दर्शनीय आकृतियां हैं। इन पांचों आकृतियों को एक साथ देखने पर जो एक पंक्ति में रथों के सामने खड़ी हैं, यह साफ पता चलता है कि कारीगरों ने एक छोटी पहाड़ी को तराश कर 5 लघु देवालयों के निर्माण की कोशिश की थी, लेकिन किसी अज्ञात कारणवश इनका निर्माण पूरा नहीं हो सका और मंदिर तथा रथ की आकृति वाले ये शिलाखंड बाहर-बाहर से कलात्मक रूप लिए खड़े रह गए। मंडप रथ और हाथी सहित इन 5 आकृतियों को देखकर प्राय: कुछ लोग इसे भ्रमवश 5 पांडवों का प्रतीक मानने लगते हैं।

हालांकि प्राचीन इतिहास के दृष्टिकोण से देखने पर इनका पांडवों या महाभारत से किसी भी प्रकार का संबंध होना प्रमाणित नहीं होता। दर्शनीय महाबलिपुरम का यह विवरण उसके कलात्मक और ऐतिहासिक रूप को प्रतिबिंबित करता है।

वर्तमान स्थिति में महाबलिपुरम का एक और अनोखा रूप निखरा है, जिससे यह भारतीय तथा विदेशी सैलानियों के लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र बन गया है। यह है उसका सुनहरी बालुका राशि पर नीले सागर की लहरों के मचलते रहने का मनोरम दृश्य। ऐसी स्थिति में जब उगते सूर्य की किरणें सागर के जल से प्रतिबिंबित होकर मन्दिर शिखरों को चूमती हैं, तो एक अलौकिक छटा प्रत्यक्ष हो जाती है। तब मानवीय स्थापत्य कला और प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत समागम हर किसी को भाव-विभोर बना देता है।

पत्थरों से अलग दूर तक बिखरे रेत पर उठते-गिरते सागर लहरों में स्नान के सुख का अपना अलग महत्व है, जिसके लिए अनेक पर्यटक वहां पहुंच कर सागर तट पर स्नान और निवास कर आनंद लाभ लेते हैं। इस हेतु तमिलनाडु के पर्यटन विभाग ने परिवहन और निवास आदि की सुविधा के लिए विशेष प्रबन्ध किया है। मद्रास तथा महाबलिपुरम् स्थित पर्यटन कार्यालयों से यात्रा और निवास संबंधी जानकारी सरलता से उपलब्ध की जा सकती है।

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