वास्तुशास्त्र और फेंगशुई में पहाड़ या ऊंची-नीची जगह पर भवन बनाने के स्थान को लेकर थोड़ा विरोधाभास है। फेंगशुई का एक सिद्धान्त है कि, यदि पहाड़ के मध्य में कोई भवन बना हो, जिसके पीछे पहाड़ की ऊंचाई हो, आगे की तरफ पहाड़ की ढलान हो और ढलान के बाद पानी का झरना, तालाब, नदी, समुद्र इत्यादि हो, ऐसा भवन प्रसिद्धि प्राप्त करता है। उस भवन में निवास करने वाले सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं।
फेंगशुई के इस सिद्धान्त में दिशा का कोई महत्त्व नहीं है। ऐसा भवन किसी भी दिशा में हो सकता है। चाहे पूर्व दिशा ऊंची हो और पश्चिम में ढलान के बाद तालाब हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर है, जो कि भारत के प्रसिद्ध बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
इस मंदिर के पूर्व दिशा में ऊंचाई है व पश्चिम में ढलान के साथ मंदिर के अंदर बड़ा कुण्ड है। मंदिर के बाहर पश्चिम दिशा में बहुत बड़ा तालाब है और उसके आगे जाकर पश्चिम दिशा में ही शिप्रा नदी बह रही है। इस प्रकार यह महाकालेश्वर मंदिर फेंगशुई के इस सिद्धान्त के अनुरूप बना है पर भारतीय वास्तुशास्त्र के सिद्धान्त के विपरीत बना होने के बाद भी यह मंदिर भारत में बहुत प्रसिद्ध है। भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व दिशा में ऊंचाई और पश्चिम में ढलान व पानी का स्रोत होना बहुत अशुभ होता है।
इसी संदर्भ में यहां एक बात और विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि, यदि कोई भवन ऐसे पहाड़ पर बना हो जहां पूर्व या उत्तर दिशा की ओर ढलान पर तालाब, झरना इत्यादि हो, दक्षिण व पश्चिम दिशा में पहाड़ की ऊंचाई हो और पहाड़ के मध्य में भवन बना हुआ हो। ऐसे उत्तर या पूर्व ढलान पर बने भवन जहां पर फेंगशुई और वास्तुशास्त्र दोनों के सिद्धान्त लागू होते हैं। ऐसे स्थान विश्व भर में प्रसिद्धि पाते हैं। इससे भवन की प्रसिद्धि केवल फेंगशुई के सिद्धान्त के अनुसार बने भवन की तुलना में बहुत ज्यादा होती है, जैसे तिरुपति बालाजी का मंदिर इत्यादि।