आम धारणा के विपरीत ये लोग रावण को ‘बुराई का प्रतीक’ नहीं मानते बल्कि उसकी अच्छाइयों की महिमा करते हुए उसे आराध्य के रूप में देखते हैं। परम्परा के अनुसार अस्सू के नवरात्रों के मौके पर यहां दूबे परिवार श्री राम मंदिर के निकट बने रावण के बुत की पूजा-अर्चना करने के उपरांत पुतले को आग लगा कर अपनी नफरत का इजहार भी करता है।
बेशक पायल में रामलीला व दशहरा मनाने की परम्परा काफी पुरानी है जिसकी शुरूआत स्व. हकीम बीरबल दास ने सन् 1935 (1839 ई.) श्री राम मंदिर व रावण के पक्के बुत का निर्माण करवा कर की थी।
कहा जाता है कि उनके दो विवाह हुए थे जिससे संतान का सुख न मिलने के कारण वह निराश होकर अपना परिवार छोड़ कर जंगलों में चले गए। वहां उन्हें एक साधु-महात्मा ने भभूति देकर हर साल अस्सू के नवरात्रों में भगवान श्रीराम व रावण की विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करने के साथ रामलीला करवाने का संदेश दिया।
यह सुन कर हकीम बीरबल दास घर वापस आ गए। उन्होंने अस्सू के पहले नवरात्रों में रामलीला शुरू करके भगवान श्रीराम चंद्र तथा विद्वान श्री रावण की पूजा-अर्चना की तथा आते साल उनके घर में एक सुंदर बच्चे ने जन्म लिया। इस तरह उनके घर में चार पुत्र अच्छरू राम, नारायण दास, प्रभु दयाल व तुलसी दास पैदा हुए जिनमें श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न जैसा प्यार था।
सदियों पुरानी चली आ रही इस परम्परा को निभाते हुए विभिन्न शहरों से पायल पहुंच कर यह रस्म निभाते हैं। दूबे परिवार के सदस्यों प्रमोद राज दूबे, विनोद राज दूबे, अखिल प्रसाद दूबे, अनिल दूबे व प्रशोत्तम दूबे आदि के अनुसार हर साल पहले नवरात्रे के मौके पर पायल आकर श्री रामचंद्र जी की पूजा से प्रोग्राम शुरू कर देते हैं तथा दशहरे वाले दिन लंकापति रावण की विधि-विधान से पूजा उपरांत समागम सम्पन्न हो जाता है। उन्होंने बताया कि यदि वह रावण की पूजा करने में कोई अनदेखी करते हैं तो उनके किसी पारिवारिक सदस्य का जानी नुक्सान हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि पायल में रावण के पक्के बुत को शहर की तरक्की व खुशहाली में रुकावट मानते हुए कई बार लोगों ने तोड़ दिया था, परन्तु फिर उन्हें वैसा ही बनाना पड़ा था।