भारत की ज्ञानकीर्ति का मुकुटमणि है कश्मीर का शंकराचार्य मंदिर:
ईसाई-इस्लाम के आगामी प्रभाव से परिचित थे आचार्य शंकर, जानिए कैसे एक सूत्र में भारत को बाँधा
शंकराचार्य के समय से वैदिक ज्ञान की नवीन दृष्टि से व्याख्याएँ होने लगी। विविध सम्प्रदायों में बाह्य कर्मकाण्ड के प्रबल होने से बढ़ते मतभेद से भी आचार्य शंकराचार्य पूर्ण परिचित ही थे
शंकराचार्य मंदिर श्रीनगर / ज्येष्ठेश्वर मंदिर:
ऋषियों एवं मनीषियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक ज्ञान ही विविधता पूर्ण विश्व में एकात्म्य स्थापित करने में प्रासंगिक हो सकता है। यद्यपि प्रौद्योगिकी के वर्तमान समय में विश्व तीव्रता से निरन्तर आगे बढ़ रहा है, तथापि इस मार्ग में अनेक विकट चुनौतियाँ भी जन्म ले रही है। जो मानवीय जीवन को व्यवहारिक रूप से साक्षात् प्रभावित कर रही है। पृथिवी के निवासियों में मानव के प्रति ही स्वार्थ प्रवृत्ति के कारण, परस्पर मैत्रीभाव की कमी तथा करणीय कर्तव्यों का अभाव से युद्ध एवं अघोषित युद्ध जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
ऐसे परिवेश में वैश्विक परिदृश्य में भारतीय जीवन दर्शन की सार्वभौमिकता सर्वत्र प्रासंगिक है। समस्त अभ्युदयों का प्रयोजक है समाज एवं राष्ट्र में परस्पर संगठन, संवर्द्धन, सद्भाव तथा अपने ही न्यायोचित भाग में एक मात्र संतोष रखना, दूसरों के वस्तु को लेने की इच्छा तक भी नही करना इत्यादि। यही मानवता का आदर्श भी है, जो मानव का धर्म भी है। अत एव धर्म जिसको धारण किया जा सके; जिसको धारण करने से ही पंच तत्त्वों से मिलकर बना यह भौतिक शरीर मनुष्य कहलाता है।
सम्पूर्ण उपनिषद् एवं भारतीय ज्ञान परम्परा का यही प्रतिपाद्य है। जहाँ भेद से अभेद, व्यष्टि से समष्टि, अनेकत्व में एकत्व, विषमता में समता एवं विविधता का एक एकत्व एवं एकत्व की ही वैविध्य में अभिव्यक्ति इत्यादि विविध विषय हैं। औपनिषदिक ऋषि कहते हैं –
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥
(ईशावास्योपनिषद्)
औपनिषदिक् ऋषियों द्वारा प्रदत्त त्यागभाव का यह उपदेश आज समस्त राष्ट्रों के लिए अनुकरणीय है। परस्पर मैत्रीभाव से युक्त होकर एक साथ रहने, बोलने, खाने-पीने तथा एक दूसरे की भावनाओं का आदर करने का उपदेश वेद में मिलते हैं। जो समस्त राष्ट्रों, समुदायों, एवं मनुष्यों से समदृष्टि एवं समभाव से परस्पर आगे बढ़ने का आह्वाहन करते हैं। वैदिक ऋषि कहते हैं कि –
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।
(ऋग्वेद १०/१९१/२)
वैदिक ऋषियों की वेदोक्त समदृष्टि केवल उपदेश मात्र नही; अपितु यह उनका अनुभव जन्य साक्षात्कृत् ज्ञान है। जो सभी काल, स्थान, परिस्थिति में अनुकरणीय एवं अकाट्य हैं। वैदिक ऋषियों के इसी ज्ञान को मानव कल्याण के लिए आद्य शंकराचार्य ने सर्वत्र प्रचारित किया जो आज तक हो रहा है। यह समस्त वैदिक ज्ञान वैश्विक जड़-चेतन, स्त्री-पुरुष तथा सभी वर्गों में अभेद दृष्टि को प्रस्तुत करता है। इसी को वेदान्त दर्शन ने अद्वैत की संज्ञा दी। यह अद्वैत ही समस्त विश्व के लिए आज भी पथ प्रदर्शक है।
इसी एकत्व एवं विश्वबन्धुत्व के अप्रतिम उदाहरण आद्य शंकराचार्य का व्यक्तित्व एवं कश्मीर भूमि हैं। जिस कालखण्ड में वैदिक ज्ञान की विविध व्याख्याओं द्वारा वैदिक आध्यात्मिक उपासना पद्धति में कर्मकाण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण होने लगा तथा वैदिक ज्ञान के दुरूह होने की स्थिति में शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषदों पर भाष्य शैली में लिखित व्याख्यान द्वारा पुनः वैदिक ज्ञान को प्रतिष्ठापित करने का अद्भुत प्रयास किया; जिसमें वे सफल भी हुए।
उस कालखण्ड में विश्व में अनेक नवीन विचारों का प्रचार-प्रसार हो रहा था; जिसमें इस्लाममत एवं ईसाईमत प्रमुख हैं। शायद उसके आगामी प्रभाव से शंकराचार्य परिचित थे। अतएव शंकराचार्य ने केवल वैदिक ज्ञान का दार्शनिक दृष्टि व्याख्यान प्रारम्भ किया अपितु इस एकात्म्यपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बाधने हेतु भारतभ्रमण करते हुए सम्पूर्ण भारत में चार मठों की स्थापना की।
अद्वैतवाद के प्रवल प्रवर्तक आचार्य द्वारा न केवल ज्ञान के स्तर पर एकत्व में बांधना एक मात्र उद्देश्य नही था, अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष को संस्कृति, सभ्यता एवं संस्कारों के माध्यम से एक सूत्र में बांधना भी परम उद्देश्य था। अतएव भारतवर्ष के चार दिशाओं में वैदिक संस्कृति को सम्पूर्ण स्थलों पर फैलाने के लिए एवं मठों के रक्षण हेतु दशनामी संन्यासियों की प्रकल्पना की। दशनामी संन्यासियों का उद्देश्य धर्मप्रचार के अतिरिक्त धर्मरक्षा करना भी था।
इस द्वितीय उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने अपना संगठन विभिन्न अखाड़ों के रूप में भी किया है। इन विविध अखाड़ों के साधुओं ने भारत एवं भारतीय संस्कृति को विदेशी आक्रमणकारियों से बचाने हेतु अनेक बार बलिदान दिए हैं; जो इतिहास प्रसिद्ध ही है।
शंकराचार्य के समय से वैदिक ज्ञान की नवीन दृष्टि से व्याख्याएँ होने लगी। विविध सम्प्रदायों में बाह्य कर्मकाण्ड के प्रबल होने से बढ़ते मतभेद से भी आचार्य शंकराचार्य पूर्ण परिचित ही थे; अत एव उन विभेदों को भी समाप्त करने का कार्य आचार्य शंकराचार्य ने किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु आचार्य शंकराचार्य भारत के मुकुटमणि, ज्ञान के सर्वोत्तम तीर्थ एवं शैव परम्परा के प्रमुख क्षेत्र कश्मीर भी गए। उस काल में न केवल कश्मीर की ज्ञान कीर्ति प्रचलित थी; अपितु विविध परम्पराओं एवं सम्प्रदायों में अद्भुत समन्वय के लिए उसकी कीर्ति थी।
वैष्णव, शाक्त, शैव, सौरपरम्परा, बौद्ध, जैन एवं तन्त्र की विविध परम्पराएँ कश्मीर क्षेत्र से सम्पूर्ण भारत में प्रचारित हुई। इन सभी सम्प्रदायों में कोई भी वैमनस्य नही था। अत एव कश्मीर के शारदा पीठ में शास्त्रार्थ हेतु आचार्य शंकर स्वयं गए। कश्मीर की धरा पर पल्लवित पुष्पित शंकराचार्य मन्दिर भारत की ज्ञानकीर्ति को आज भी शिरोधार्य किए हुए है।
अपनी सम्पूर्ण भारत की यात्रा से शंकराचार्य ने आध्यात्मिक ज्ञान के महत्व को भी स्पष्ट किया; जिसके द्वारा विविध मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित हो सकता है। वे शंकराचार्य ही थे; जिन्होंने न केवल अपने कालखण्ड में वैदिक ज्ञान को संरक्षित किया अपितु उनके द्वारा प्रतिष्ठापित सिद्धान्त आज भी उसी रूप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा भारत आज भी अपनी कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैला रहा है।
जिसमें अहं ब्रह्मास्मि (बृहदारण्यकोपनिषद १/४/१०), तत्त्वमसि (छान्दोग्योपनिषद ६/८/७), अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद् १/२) एवं प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेयोपनिषद् १/२) की ही भावना निहित है। अत एव आज के बदलते वैश्विक परिदृश्य में आचार्य शंकर अत्यन्त प्रासंगिक हैं।