बुद्धा: बौद्ध धर्म के प्रचारक – बुद्ध अर्थात परमेश्वर ने मानव रूप धारण कर पृथ्वी पर जन्म लिया। अपने जीवन में अथक प्रयास से जो प्राप्त किया, वह बौद्ध धर्म था। बुद्ध और बौद्ध धर्म के बारे में विचारकों के अलग-अलग मत रहे हैं, लेकिन सभी ने बुद्ध को महान पथ प्रदर्शक माना है। वह मानव कल्याण की भावनाओं को अभिव्यक्त करते रहे। उन्होंने अंतिम कथन यही कहा था – अपना दीपक स्वयं बनो।
राजा शुद्धोधन और महारानी माया देवी के पुत्र सिद्धार्थ आगे चलकर बुद्ध कहलाए। मां माया देवी कोली वंश की थी और सिद्धार्थ के जन्म के 7 दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई थी। उनका पालन-पोषण मौसी ने किया, जो बाद में राजा शुद्धोधन की महारानी भी बनीं।
बुद्धा: बौद्ध धर्म के प्रचारक
सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही एकान्त प्रिय और चिंतनशील थे। उनका विवाह शाक्य कन्या राजकुमारी यशोधरा से सम्पन्न हुआ। राजा शुद्धोधन ने भोग-विलास का भरपूर प्रबंध किया था, फिर भी सिद्धार्थ का वैराग्य बढ़ता गया। इसी बीच यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के जन्म पर इनके मुख से अनायास ‘बंधन‘ शब्द निकला। पुत्र का नाम राहुल रखा। सिद्धार्थ को यह लगने लगा था कि वह मायाजाल में फंसते जा रहे हैं।
उन्हें तीन ऋतुओं से युक्त तीन सुन्दर भवन भी विरक्ति से रोक नहीं पाए। एक बार सिद्धार्थ वसंत ऋतु में बगीचे में सैर कर रहे थे। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दांत टूट गए थे, बाल पक गए थे, हाथ में लाठी लिए धीरे-धीरे चल रहा था। दूसरी बार उन्हें सामने से आता एक रोगी दिखा, जिसका पेट फूला हुआ था, चलने में लाचार था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर ले जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग रो रहे थे, कोई छाती पीट रहा था, कोई बाल नोच रहा था, इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को विचलित कर दिया, उन्होंने सोचा यह जीवन बेकार है।
चौथी बार बगीचे में उन्हें एक संन्यासी दिखाई दिया। संसार से सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया। सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया, उन्होंने सोचा संसार दुख, पीड़ा, चिन्ता, निराशा, मृत्यु से ग्रसित है। मानव का अस्तित्व कुछ नहीं, इससे कैसे उद्धार हो और उन्होंने घर छोडऩे का फैसला कर लिया। मध्यरात्रि को संसारिक बंधन त्याग कर ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
ज्ञान की खोज में मगध में निरंजना नदी के तट पर अपने पांच साथियों के साथ तप करने बैठ गए, शरीर अस्थि-पिंजर मात्र रह गया मगर ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। इसी बीच इनके पांचों साथी उनका साथ छोड़कर चले गए। सिद्धार्थ ऊंच-नीच, जाति-धर्म से दूर थे। उनके अंदर विनय-भाव व प्रेम भरपूर था। सिद्धार्थ एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न थे, तभी उन्हें सत्य का अनुभव हुआ और तभी से वह बुद्ध कहलाए।
जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला, वह बोधिवृक्ष कहलाया, जो बोधगया में है। काफी समय तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बौद्ध धर्म का उपदेश देने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वह काशी के पास सारनाथ पहुंचे, वहीं उन्होंने सबसे पहला धर्मोंपदेश दिया।
पहला ज्ञान बुद्ध ने उन्हीं पांच शिष्यों को दिया जो उन्हें छोड़कर चले गए थे, यही बोधिसत्व कहलाए। बुद्ध अपने ज्ञान प्रचार के लिए सारनाथ आए और यहां पांच भिक्षुओं से मिलकर अपना पहला उपदेश दिया। पहले के पांच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया यह पांच भिक्षु उनके शिष्य हो गए और उन्हीं लोगों को धर्म प्रचार के लिए देश-विदेश भेजा। धर्म का प्रचार उस समय की सरल लोकभाषा पाली में किया। बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया। उन्होंने दुख के कारण और उसके निवारण के लिए मार्ग बताया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया तथा यज्ञ और पशुबलि की निंदा की।
बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए खुला है, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी। इस धर्म में जात-पात, ऊंच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं था। राजा महाराजा सभी इस धर्म में शामिल हो गए। राजा शुद्धोधन और राजकुमार राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। जब बौद्ध धर्म का प्रचार काफी बढ़ गया तो बौद्ध संघ की स्थापना की, पहले इस संघ में महिलाओं को आने की अनुमति नहीं थी, लोगों के अनुरोध पर महिलाओं को भी संघ में आने की अनुमति मिल गई।
बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के अंतर्गत लोक कल्याण के लिए अपने धर्म का प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को भेजा। यहां तक कि सम्राट अशोक का तो जीवन ही बदल गया। विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत से निकल कर बौद्धधर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, म्यांमार, श्रीलंका तक फैला। इन देशों में बौद्ध धर्म के बहुसंख्यक अनुयायी हैं।