हनुमान भक्त स्वामी विवेकानंद बनना चाहते थे गिलहरी

हनुमान भक्त स्वामी विवेकानंद बनना चाहते थे गिलहरी

‘जब तक एक भी हिन्दू व्यक्ति जीवित है… तब तक रहेगी माता सीता की कथा’ – क्यों स्वामी विवेकानंद बनना चाहते थे गिलहरी?

स्वामी विवेकानंद ने भारत में विघटित होते जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना पर कहा था, “अपने महिमावान अतीत को मत भूलो। स्मरण करो… हम कौन हैं? किन महान पूर्वजों का रक्त हमारी नसों में प्रवाहित हो रहा है? एक ऐसे महान भारत की नींव रखो, जो विश्व का पथप्रदर्शन कर सके।”

इतिहास साक्षी है कि पुण्यभूमि भारत की गाथा सहस्त्रों वर्षों के कठोर संघर्ष की गौरव गाथा है। इस शांतिप्रिय देश पर निरंतर कुठाराघात होने के कारण यहाँ के जनमानस में घोर निराशा छा गई थी। भारतवासियों का स्वाभिमान सो गया था। यह देश अपना गौरवशाली इतिहास, अपनी महान संस्कृति, अस्तित्व सब भूल बैठा था। परतंत्रता रूपी अंधकार में डूबे भारत में 12 जनवरी 1863 में बंगाल की भूमि पर एक ऐसे प्रकाशपुंज का आविर्भाव हुआ, जिन्हें संसार योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद के नाम से जानता है।

हनुमान भक्त स्वामी विवेकानंद बनना चाहते थे गिलहरी

उनका समस्त जीवन भारत माता को समर्पित था। परिव्राजक संन्यासी से रूप में अनेकों कष्टों का सामना करते हुए उन्होंने पूरा भारत भ्रमण किया। कोने कोने में गए। लोगों से मिले और अपने देश को बहुत करीब से देखा। उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हुआ। अतः भारत के सोए स्वाभिमान को जगाने हेतु वे विदेश की धरती पर पहुँचे। उन्होंने पूरी दुनिया में अपने महान सनातन धर्म, संस्कृति और दर्शन का लोहा मनवाया।

भारतीय आत्मा को अक्षुण्ण रखते हुए सार्वभौमिक विचारों से संवाद स्वामीजी की प्रमुख विशेषता थी। उन्होंने कहा था भारत एक बार फिर समृद्धि तथा शक्ति की महान ऊँचाइयों पर उठेगा और अपने समस्त प्राचीन गौरव को पीछे छोड़ जाएगा, भारत पुनः विश्व गुरु बनेगा, जो पूरे संसार का पथ प्रदर्शन करने में समर्थ होगा। आज उनका यह कथन काफी हद तक सत्य होता दिखलाई दे रहा है। केवल भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व ही राममय हो गया है। प्रभु श्रीराम लला की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु चराचर जगत उत्साहित है। रामराज्य की स्थापना से पूर्व ही भारत वैश्विक नेतृत्व की भूमिका पर अग्रसर हो चुका है।

स्वामी विवेकानंद और रामायण

स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न अवसरों पर अपने व्याख्यानों में श्रीराम कथा के पात्रों विशेषकर श्रीराम, माता सीता और श्रीहनुमान आदि के चरित्र का बखान करते हुए मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की। 2 सितंबर 1897 को मद्रास (अब के चेन्नई) के विक्टोरिया हॉल में उन्होंने कहा था:

“मैं बस राम के पुल के निर्माण में उस गिलहरी की तरह बनना चाहता हूँ, जो पुल पर अपनी थोड़ी सी रेत-धूल डालकर काफी संतुष्ट थी।”

इतना ही नहीं अपितु उन्होंने अपने द्वितीय विदेश प्रवास में 31 जनवरी 1900 को अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया स्थित शेक्सपियर क्लब में ‘रामायण’ शीर्षक पर व्याख्यान देते हुए सबको संक्षिप्त रामायण भी सुनाई थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि श्रीराम और माता सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श हैं।

इसके बाद 30 मार्च 1901 को अब के बांग्लादेश के ढाका में ‘मैंने क्या सीखा’ शीर्षक के अंतर्गत स्वामी विवेकानंद कहते हैं, “जहाँ राम हैं, वहाँ काम नहीं है; जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं हैं। रात और दिन कभी एक साथ नहीं रह सकते।”

माता सीता पर विवेकानंद के विचार

अपने मद्रास व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद कहते हैं, “सीता का चरित्र अद्वितीय है। यह चरित्र सदा के लिए एक ही बार चित्रित हुआ है। राम तो कदाचित अनेक हो गए हैं, किंतु सीता और नहीं हुईं।”

एक अन्य अवसर पर भी उन्होंने कहा था, “सीता विशिष्ट हैं, उनका चरित्र सभी के लिए आदर्श है। सीता सच्ची भारतीय स्त्री का उदाहरण हैं, सभी भारतीयों के लिए, एक परिपूर्ण स्त्री का आदर्श अकेली सीता के जीवन से निकलकर आता है। सम्भव है कि हमारा समस्त पौराणिक साहित्य लुप्त हो जाए, किन्तु फिर भी, जब तक एक भी हिन्दू व्यक्ति जीवित है, चाहे वह कितनी ही ग्राम्य बोली क्यों न बोलता हो, तब तक सीता की कथा रहेगी, मेरे इन शब्दों को आप याद रखें। सीता हमारी जाति के जीवनावश्यक तत्वों में सम्मिलित हैं। वह प्रत्येक हिन्दू पुरुष और स्त्री के रक्त में हैं। हम सब सीता की ही सन्तान हैं।”

हनुमान भक्त स्वामी विवेकानंद

बाल्यकाल से ही स्वामी विवेकानंद को ध्यान लगाना अतिप्रिय था। लगभग 4-5 वर्ष की आयु में ही वे माता सीता, श्रीराम और महादेव की मिट्टी की मूरत पर फूल अर्पित कर ध्यानमग्न हो जाया करते थे। उन्होंने स्वयं एक बार अपने शिष्य शरतचंद्र चक्रवर्ती को बताया था कि बचपन में जब भी यह ज्ञात होता कि आस पड़ोस में कहीं निपुण गायकों की मण्डली रामायण का पाठ करने वाली है, तो वह अपना खेल आदि छोड़कर उसमें उपस्थित हो जाते थे।

हनुमान जी महाराज पर उनकी आस्था इतनी प्रगाढ़ थी कि लोक मान्यता के अनुसार यह सुनकर कि हनुमान जी को कदली (केला) वनों में ढूंढा जा सकता है, वे उत्साहित होकर अपने घर के समीपस्थ एक केले के उद्यान में रात भर उनके दर्शन की लालसा से बैठे रहे। स्वामीजी की यह हार्दिक इच्छा थी, “प्रत्येक भारतीय के घर में महावीर हनुमान की पूजा का अनुष्ठान किया जाना चाहिए। ऐसा करने से मानव मन की आत्मशक्ति जागृत की जा सकेगी।”

स्वामी विवेकानंद ने भारत में विघटित होते जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए युवा पीढ़ी पर ही सबसे अधिक भरोसा किया था। वे कहते हैं, “अपने महिमावान अतीत को मत भूलो। स्मरण करो… हम कौन हैं? किन महान पूर्वजों का रक्त हमारी नसों में प्रवाहित हो रहा है? एक ऐसे महान भारत की नींव रखो जो विश्व का पथप्रदर्शन कर सके।”

तत्कालीन समाज को दिया गया स्वामी विवेकानंद का यह संदेश आज भी प्रासंगिक है। अब समय आ गया है कि देश का युवा उसी सेवा, समर्पण और भक्ति से अपनी भारत माता के लिए कार्य करे, जिस निष्ठा से हनुमान जी ने अपने आराध्य श्रीराम का कार्य किया। उसी उत्साह से देश के पुनरुत्थान में योगदान दें, जैसे गिलहरी ने दिया था।

युगों से इस राष्ट्र के आदर्श और महापुरुषों के प्रेरणास्रोत मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम और माता सीता ही रहे हैं। राम मंदिर का बनना हर सनातनी के लिए गर्व का विषय है परन्तु इस दिव्य क्षण के लिए किए गए वर्षों के संघर्ष को हमें भूलना नहीं है और इसके संरक्षण हेतु हमें अपनी जड़ों को सींचना होगा अर्थात अपने पवित्र ग्रंथों का पठन-पाठन तथा चिंतन-मनन करना होगा।

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