सन्ताें के तपस्थलाें, तीर्थस्थलाें व पवित्र धामाें की यात्रा पर जाने का महात्म्य यह है कि हमें वहां जाकर ईश्वर का स्मरण हाे सके। हमारे पूजा-स्थल, धर्म स्थान व मंदिर इसलिए पूज्य व पावन हैं क्याेंकि वहां जाकर हमें ईश्वर की याद आती है।
वास्तव में ईश्वर कहीं खाे नहीं गया है, बस हमने ही उसे भुला दिया है। अनमाेल रत्न हमारी जेब में है परन्तु यदि हमें उसकी याद ही नहीं ताे कंकाल ही बने रहेंगे। परमात्मा काे भूलना ही हमारे दु:खाें का मूल कारण है। हमें सुख आैर आनन्द तब तक नहीं मिलेगा जब तक उसकी याद नहीं आएगी। उसकी याद, उसका नाम स्मरण ही सुखदायक है आैर उसका भूलना ही सभी दु:खाें का मूल है।
उसकाे भुला देने से हमारी हालत वही है जैसे घने जंगल में खाेई किसी गैया की। जाे अपनी लालसाआें व इच्छाआें का पीछा करते करते रास्ता भटक गई हाे आैर अपने “गाेविन्द-गाेपाल” से दूर चली गई हाे। हम हैं ताे ‘ उसके ‘ से उसका हाथ छाेड़कर इस दुनियां के मेले में खाेए दु:ख व मुसीबतें झेल रहे हैं। हमें अब यहां न काेई आराम है न चैन यह चैन व आराम तभी मिलेगा जब हम अपने घर लाैट जाएंगे अर्थात परमात्मा के घर।
परन्तु, याद रहे! हममें इतनी समझ व समर्थ नहीं है कि हम स्वयं अपने घर वापिस जाने का रास्ता ढूंढ सकें। यदि हम इतने अकलमंद हाेते ताे भटकते ही क्याें ? हमें अभी भी सामने ‘गाेविन्द-गाेपाल’ दिखाई ही नहीं देता। हम ताे उसके धामाें व तीर्थ-स्थानाें की यात्राआें से भी अशांत व बेचैन रहते हैं। उसकी कृपा वर्षा बन बरस रही हाेती है आैर हम सूखे के सूखे ही रह जाते हैं। हमारी सांसाें की पूंजी पल-पल, छिन-छिन खत्म हाे रही है आैर हमें ख्याल ही नहीं आता कि हमें वापिस जाना है आैर जाे कार्य करने आए थे वह ताे किया ही नहीं है।