केदारनाथ धाम: ढोल-ताशा परंपरा या फिर रीलबाजी

केदारनाथ धाम: ढोल-ताशा परंपरा या फिर रीलबाजी

केदारनाथ धाम में ढोल-ताशा परंपरा या फिर रीलबाजी?

संतोष जी महाराज ने कहा कि कई तीर्थस्थलों पर कम खर्च और कम समय में लोग पहुँच सकते हैं, लेकिन वो केदारनाथ धाम आ रहे हैं क्योंकि यहाँ वो खुद को प्रकृति के करीब पाते हैं। उन्होंने सवाल किया कि अगर ये प्रकृति ही हम बचा नहीं पाएँगे तो आएगा कौन?

केदारनाथ धाम रीलबाजी: क्या आज लोग केदारनाथ धाम जाकर कुछ ऐसी हरकतें कर रहे हैं जिससे वहाँ की शांति भंग हो रही है? या फिर ये एक अनावश्यक विवाद है, क्योंकि इन्हीं श्रद्धालुओं से वहाँ के लोगों का व्यापार चलता है? इसमें एक तर्क ये भी है कि हमारे गली-मोहल्ले के मंदिर जो वहाँ हम रौनक लाने का प्रयास क्यों नहीं करते दूर तीर्थाटन करने से पहले? दैनिक न सही तो कम से कम साप्ताहिक रूप से ही वहाँ उपस्थिति क्यों नहीं दर्ज करा पाते? खैर, रील्स वाली बीमारी आजकल भारत के कई तीर्थस्थलों पर देखने को मिल रही है।

अगर आपने ऋषि-मुनियों के जीवन के बारे में पढ़ा होगा तो अक्सर देखा होगा कि वो वन में तपस्या करते थे। यही कारण है कि नैमिषारण्य से लेकर दण्डकारण्य तक उस काल में आध्यात्मिक स्थलों के रूप में उभरे। ऋषि-मुनियों ने वहीं प्रकृति के बीच अपने आश्रम स्थापित किए। वो पेड़-पौधों एवं वन्यजीवों की देखभाल भी करते थे। इन आश्रमों में मृग चरते रहते थे, ऐसा प्रसंग कई बार रामायण या महाभारत में आया है। कइयों ने तपस्या के लिए और भी दुर्गम स्थल चुने।

इनमें हिमालय उनका सबसे पसंदीदा क्षेत्र हुआ करता था। स्पष्ट है कि तब हिमालयी क्षेत्र में आज की तरह पक्की सड़कें नहीं रही होंगी, रोपवे नहीं बने होंगे और चढ़ाई में सहूलियत देने वाले उपकरण नहीं रहे होंगे, वहाँ की तस्वीरें-वीडियो देख कर वहाँ जाने की योजनाएँ नहीं बनती होंगी। कभी आपने सोचा है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आखिर इन दुर्गम स्थलों को ही अपना ठिकाना क्यों बनाया? वो गाँव-नगर में रह कर भी तो साधना कर सकते थे। इसका आसान सा जवाब है – शांति।

हिमालयी या जंगली क्षेत्रों में क्यों रहते थे ऋषि-मुनि?

जी हाँ, शांति। ये ऋषि-मुनि लोगों की बसावट से दूर इसीलिए रहते थे, ताकि उनकी साधना में कम से कम व्यवधान पड़े। अब जो व्यवधान डालने के लिए जंगलों तक में पहुँच गए, वो राक्षस कहलाए। केदारनाथ धाम भारत के प्राचीन आध्यात्मिक स्थलों में से एक है। 2023 में 12 लाख लोगों ने उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित इस मंदिर में आकर महादेव का दर्शन किया। ये 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर सड़क से सीधा नहीं जुड़ा हुआ है, अतः गौरीकुंड से 22 किलोमीटर के ट्रेक के बाद लोग यहाँ आते हैं।

प्राचीन काल में हिमालय को स्वर्ग इसीलिए भी कहा गया, क्योंकि यहाँ के वन्यजीवन और स्थानीय जनजीवन की गतिविधियों में व्यवधान डालने के लिए बाहरी ताकतें नहीं आती थीं। पहाड़ों में विकास कार्य होने चाहिए, मराठा महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने केदारनाथ धाम तक में निर्माण कार्य कराए। पर्यटन और तीर्थाटन भी होना चाहिए, लेकिन हुड़दंग, नशा, रीलबाजी और दिखावे के लिए पहाड़ों पर जाने का जो प्रचलन चल पड़ा है उसे बंद करने की आवश्यकता है।

केदारनाथ धाम: द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक, 2013 में आया था महाप्रलय

केदारनाथ धाम रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है, जो अलकनंदा एवं मन्दाकिनी नदियों के संगम के लिए विख्यात है। केदार पर्वत पर स्थित इस ज्योतिर्लिंग को केदारेश्वर भी कहा जाता है। यहाँ कण-कण में भगवान शिव बसे हुए हैं, तभी इस पर्वत श्रृंखला को भी रूद्रपर्वत कहा जाता है। इसे सुमेरु और पंच पर्वत भी कहा गया है, क्योंकि इसमें 5 चोटियाँ हैं – रूद्र हिमालय, विष्णुपुरी, ब्रह्मपुरी, उद्गारीकंठ, और स्वर्ग रोहिणी। इसी का एक हिस्सा गंधमादन पर्वत भी है, जहाँ से युधिष्ठिर ने स्वर्ग में प्रवेश किया था।

उन्होंने कहा भी था कि कठिन तपस्या के बाद ही यहाँ तक पहुँचा जा सकता है। जब कोई मेहनत कर के कहीं पहुँचता है तो उसे लक्ष्य की महत्ता का भान होता है, आज की जो पीढ़ी आसानी से वहाँ मोबाइल फोन लेकर पहुँच रही है उसके लिए ये एक खेल से बढ़ कर कुछ नहीं। स्कन्द पुराण में खुद ब्रह्मा जी कहते हैं कि महान दुर्गम पर्वत हिमाद्रि सभी जंतुओं के लिए नहीं है, इस पर महेश्वर का शासन है। विनती किए जाने पर महादेव ने डिवॉन, गंधर्वों, पक्षियों, नागों एवं विद्याधरों की क्रीड़ा के लिए अलग-अलग स्थान निश्चित किए।

खुद भगवान शिव हिमालय को सभी आश्रमों का निवास स्थान बताते हुए कहते हैं कि वो यहाँ पर लिंग के रूप में स्थित हैं। पांडव भी महाभारत युद्ध के बाद मन की शांति के लिए यहाँ आए थे। केदारनाथ ही वो जगह है, जहाँ जगद्गुरु शंकराचार्य शिव में विलीन हुए थे, यहाँ उन्होंने देह-त्याग किया था। सर्दी के मौसम में मंदिर बंद रहता है, इसीलिए नियमित पूजा उखीमठ में जारी रहती है। कुल मिला कर यूँ समझिए कि केदारनाथ धाम हिन्दू, खासकर शैव मत में एक उच्च स्थान रखता है।

केदारनाथ धाम भक्ति व अध्यात्म का स्थल, रील बनाने की जगह नहीं

पिछले कुछ वर्षों से केदारनाथ धाम, खासकर पूरे पहाड़ी क्षेत्र पर एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। लोग भगवान के दर्शन, भजन-कीर्तन, ध्यान या योग के लिए नहीं, बल्कि इंस्टाग्राम रील बनाने के लिए यहाँ पहुँच रहे हैं। आपको लड़के-लड़कियाँ पहाड़ों पर लॉन्ग ड्राइव करते और बियर पीते हुए मिल जाएँगे। ये पवित्र स्थल सेक्स और नशा का अड्डा नहीं हैं, न बनाए जाने चाहिए। ये नाच-गान के लिए भी नहीं है, यहाँ की शांति भंग करने का अधिकार किसी को भी नहीं है।

अब देखिए, केदारनाथ धाम में रील वाला ड्रामा इतना बढ़ गया कि वहाँ के स्थानीय पुजारियों को हस्तक्षेप करना पड़ा। भड़कते हुए पुजारी इस वीडियो में कह रहे हैं कि कुछ लोगों ने और प्रशासन ने तमाशा बना रखा है, गाजा-बाजा नहीं बजना चाहिए। वो कह रहे हैं कि सिर्फ ढोल बजेगा, भगवान के दर्शन के लिए यहाँ लोगों को आना चाहिए। उनका पूरा ज़ोर है कि क्षेत्र को शांत रखा जाना चाहिए, ये सब करना है तो लोग न आएँ। असल में इंदौर के 44 लड़के और 18 लड़कियों का एक समूह वहाँ 30 ढोल और 10 ताशे लेकर पहुँचा था, वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाने के लिए।

अगर हम कहीं भी घूमने जा रहे हैं, अपने बगल के गाँव में भी – तो सबसे पहले चीज हमें ये देखनी चाहिए कि उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं और उसी अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। अगर आप किसी के घर में बतौर मेहमान जाते हैं तो वहाँ अपनी नहीं चलाते। हाँ, ये देश का हर कोना हर एक देशवासी का है, लेकिन देश की विविधता का सम्मान करना भी हम देशवासियों का ही काम है। अयोध्या, मथुरा, काशी, केदारनाथ या फिर उज्जैन महाकाल मंदिर रील बनाने के स्थल नहीं हैं।

इस मामले में आप दक्षिण भारत को देख लीजिए, जहाँ हर मंदिर के कुछ नियम-कानून हैं और आपको उसका अनुसरण करना पड़ता है। तमाम मंदिरों के अपने ड्रेस कोड भी हैं, प्रधानमंत्री या उनके सुरक्षाकर्मी भी जाते हैं तो उन्हें इसका पालन करना पड़ता है। अगर कहीं कुछ पाबंदियाँ नहीं लगाई गई हैं, तब हमारे जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि हम वहाँ की मर्यादा को बनाए रखें। उत्तराखंड की पुलिस भी चेतावनी जारी कर चुकी है कि धाम की मर्यादा बनाए रखने के लिए धूम्रपान न करें, हुड़दंग न करें।

केदारनाथ धाम रीलबाजी: क्या कहते हैं पुजारी

हमने इस पूरे मामले को समझने के लिए वहाँ के पुजारी आचार्य संतोष जी महाराज से बात की। उनका आरोप है कि सरकार का ध्यान अब तीर्थ से पर्यटन की तरफ केंद्रित हो गया है। उनका कहना है कि पूजा परंपरा में बदलाव आ गया है, जो गलत है। उन्होंने कहा कि यहाँ की परंपरा है गर्भगृह में जाकर दर्शन करना, जैसा उज्जैन महाकाल मंदिर में भी है। वहाँ पूजा होती है, माता को घी लगाई जाती है, गणेश जी की प्रथम पूजा का नियम है।

उनका कहना है, “गणेश जी की पूजा के नियम की अनदेखी हो रही है। अब VIP दर्शन कराए जा रहे हैं। सीधे गर्भगृह में 2100 रुपए शुल्क लेकर प्रवेश कराया जाता है, जिससे ऐसे में धर्म दर्शन में रास्ते में जो गणेश जी की पूजा होती है, वो नहीं हो पा रही है। धर्म और आस्था बिक रही है, परंपराएँ कहाँ रह गई हैं? ‘विशेष पूजा’ में भी गणेश जी की पूजा छोड़ कर आगे की पूजा की जाती है। मेरी सलाह है कि श्रद्धालु कितनी भी संख्या में आएँ, यहाँ की परंपराओं पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।”

उन्होंने कहा कि हमें ये देखे जाने की ज़रूरत है कि एक घंटे में हम कितने श्रद्धालुओं को दर्शन करा सकते हैं और दिन भर में हमारे पास दर्शन के लिए कितने घंटे हैं, इस हिसाब से नियम बनाया जाना चाहिए और इसमें न सिर्फ मंदिर समिति बल्कि तीर्थ पुरोहितों को भी सहयोग करना चाहिए। संतोष जी महाराज ने कहा कि यहाँ मशीनें चल रही हैं, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ हो रही है। उन्होंने कहा कि विकास कार्य के नाम खुलेआम खनन हो रहा है। उन्होंने कहा कि आज योजनाएँ नहीं बल्कि प्रकृति ज़रूरी है।

संतोष जी महाराज ने कहा कि कई तीर्थस्थलों पर कम खर्च और कम समय में लोग पहुँच सकते हैं, लेकिन वो केदारनाथ धाम आ रहे हैं क्योंकि यहाँ वो खुद को प्रकृति के करीब पाते हैं। उन्होंने सवाल किया कि अगर ये प्रकृति ही हम बचा नहीं पाएँगे तो आएगा कौन? उन्होंने कहा कि कमाई की जगह प्रकृति को बचाने पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि मंदिर समिति ने जगह-जगह विज्ञापन दे रखा है कि 2100 रुपए में दर्शन करा देंगे, जबकि आम लोग 4-4 घंटे लाइन में खड़े रहते हैं। उन्होंने मंदिर समिति पर करोड़ों रुपए के सोने में भी गड़बड़ी के आरोप लगाए।

केदारनाथ धाम में अव्यवस्था? मंदिर समिति ने अपनी सफाई में क्या कहा

वहीं केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष अजयेन्द्र अजय इन आरोपों से ताल्लुक नहीं रखते। उन्होंने कहा कि मंदिर में लॉकर रूम की व्यवस्था नहीं है, इस कारण मंदिर समिति श्रद्धालुओं के मोबाइल फोन, कैमरा या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को नहीं जमा करा पाती हैं। उन्होंने कहा कि बाकी मंदिरों के मुकाबले केदारनाथ मंदिर के पास जगह की भी कमी है। उन्होंने कहा कि श्रद्धालुओं से लगातार मंदिर की मर्यादा बना रखने की अपील मंदिर समिति करता रहता है।

उन्होंने कहा कि श्रद्धालुओं से लगातार अपील की जाती है कि परंपराओं का पालन किया जाए और किसी की भी धार्मिक भावनाएँ आहत न की जाएँ। हालाँकि, उन्होंने ये भी कहा कि मंदिर समिति का अधिकार क्षेत्र सिर्फ पूजा-प्रबंधन तक सीमित है, बाकी चीजें पुलिस-प्रशासन की जिम्मेदारी है। VIP दर्शन के आरोपों को नकारते हुए उन्होंने कहा कि यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं, प्रोटोकॉल से आने वाले VIPs से देश के सभी मंदिरों में शुल्क लिया जाता है।

केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष अजयेन्द्र अजय ने कहा कि किसी-किसी मंदिर में सामान्य दर्शनार्थियों से भी शुल्क लिया जाता है, लेकिन केदारनाथ धाम में ऐसा कुछ भी नहीं है। सोने में गड़बड़ी के आरोपों पर उन्होंने कहा कि अनाधिकारिक कुछ भी नहीं होता बल्कि सब कुछ रिकॉर्ड पर होता है। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार की कॉर्पोरेट बॉडी है, हम ऑटोनोमस हैं लेकिन कई चीजों में सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार समिति के एग्जीक्यूटिव ऑफिसर और फाइनेंस ऑफिसर नियुक्त करती है।

क्या श्रद्धालुओं से अनावश्यक रूप से वसूले जाते हैं पैसे?

हमने केदारनाथ धाम जाने वाले कुछ श्रद्धालुओं से भी बातचीत की, जिनका कहना है कि सब इंस्टाग्राम रील्स बनाने या फिर नशा करने के लिए ही केदारनाथ धाम नहीं आते हैं, ऐसे में सभी को इस रूप में देखना ठीक नहीं है। एक पक्ष ये भी है कि केदारनाथ धाम में ढोल-ताशे वाले जिस दल को रोका गया, वो देश के कई मंदिरों में घूम कर ऐसा कर चुके हैं और वो काफी भक्तिभाव से ये सब करते हैं। उस पक्ष का ये भी कहना है कि वो पारंपरिक वेशभूषा में रहते हैं और मर्यादा का किसी प्रकार से भी उल्लंघन नहीं करते।

एक श्रद्धालु ने कहा कि अगर ढोल-ताशे की आवाज़ से दिक्कत है तो फिर सुबह से शाम तक केदारनाथ धाम के ऊपर जो हेलीकॉप्टर मँडराते रहते हैं, उससे पर्यावरण को दिक्कत क्यों नहीं होती? उन्होंने एक और विषय पर आवाज़ उठाई, वो है अनावश्यक वसूली का। कुछ श्रद्धालुओं की शिकायत है कि होटल रूम से लेकर अन्य सभी सेवाओं के लिए कई गुना ज़्यादा रुपए वसूले जाते हैं और इस पर कोई आवाज़ नहीं उठाता। उनका कहना है कि कभी-कभी 10 गुना ज्यादा शुल्क लिया जाता है।

हालाँकि, ये समस्या खासकर पहाड़ की नहीं है बल्कि देश के अधिकतर तीर्थ एवं पर्यटन स्थलों पर ट्रांसपोर्ट और स्टे में बाहर से आने वालों को अधिक शुल्क चुकाना पड़ता है। पूरी बात का लब्बोलुआब ये है कि हमें धार्मिक स्थलों पर वहाँ की मर्यादा का पालन करते हुए भक्ति और अध्यात्म में रमना चाहिए, शांति के साथ। अब ढोल-ताशा बजाने से रोकने को लेकर अलग-अलग राय हो सकते हैं, वो भक्तिभाव से कर रहे थे या फिर सोशल मीडिया के लिए – उनके मन की बात विशुद्ध रूप से तो बाबा केदार को ही पता होगी।

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