रोजेदार की अपनी भूख-प्यास जहां उसमें ईशपरायणता, आत्मनियंत्रण, अल्लाह के आज्ञा-पालन और धैर्य के गुण पैदा करने का जरिया बनती है वहीं रोजोदार को इंसानों पर भूख-प्यास और दुख-दर्द में जो कुछ बीतती है उसका आस्वादन भी कराती है। इस निजी अनुभव से उसके भीतर सहानुभूति की जीवंत भावना पैदा हो जाती है। यद्यपि रमजान के महीने में रोजे रखना हर आकिल व बालिग इंसान पर अनिवार्य है, तथापि बीमारों तथा मुसाफिरों को छूट दी गई है कि वे इस महीने में रोजों से चूक जाएं तो अन्य दिनों में रोजा रखें क्योंकि अल्लाह इंसान पर नर्मी बरतना चाहता है।
रोजो की हालत में इंसान के हर अंग का रोजा होता है। उदाहरण के लिए आंख का रोजा है-बुरा न देखना, जुबान का रोजा है-अपशब्द न बोलना तथा किसी की बुराई न करना तथा कान का रोजा है-किसी की बुराई न सुनना। वैसे भी इस्लाम में बुराई सुनना एक भयंकर पाप है तथा मरे हुए भाई का मांस खाने के समान है।
अत: रोजो का अर्थ केवल भूखा-प्यासा रहना ही नहीं है बल्कि हर बुराई से परहेज करना होता है। जो व्यक्ति रोजा रख कर भी झूठ बोलने और झूठ पर अमल करने से बाज नहीं आया तो अल्लाह को उसके भूखे-प्यासे कहने से कोई मतलब नहीं। इसके विपरीत यदि सभी मापदंडों के साथ रोजा रखा जाए तो ऐसे रोजेदार के मुंह की बू अल्लाह के नजदीक मुश्क की खुशबू से भी बेहतर है।