जातिगत भेदभाव हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता, संगठित होना इस काल की आवश्यकता: स्वामी विवेकानंद
“जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता!”
जातिगत भेदभाव सबसे बड़ी दुर्बलता: विवेकानंद
सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से पराधीनता और गुलामी को अस्वीकार करने की जो ज्वाला जागृत हुई, वह लगभग 100 वर्ष बाद, अनेकों बलिदानियों के कारण 15 अगस्त 1947 को स्वाधीनता के रूप में फलित हुई। 2022 में भारत ने अपनी स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण किए हैं। एक तरफ जहाँ पिछले 75 वर्ष में एक राष्ट्र के तौर पर हमने शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य, ज्ञान, विज्ञान, कृषि, कला, खेल, चिकित्सा, इत्यादि क्षेत्रों में विश्व स्तरीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, वहीं आने वाले काल में हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर तीव्रता और प्रबलता से अग्रसर होना एक चुनौती के रूप में हमारे सामने है। आने वाले 25 वर्ष में नए भारत के निर्माण के लिए कमर कसने का समय आ गया है, जहाँ सैकड़ों चुनौतियाँ भी हैं और अवसर भी। इस काल में हमें एक ऐसे व्यक्तित्व के अनुसरण करने की आवश्यकता है, जिनके जीवन में निरंतरता हो, विचार में समग्रता और चिंतन में भारत हो। यह खोज स्वामी विवेकानंद पर आकर रूकती है। भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक ‘दी मास्टर एज आई सॉ हिम’ में लिखती हैं, “स्वामीजी के लिए भारत का चिंतन करना श्वास लेने जैसा था।”
सहस्त्रों वर्षों के विदेशी आक्रांताओं द्वारा किए गए दमन और गुलामी के कारण जब सामान्य भारतवासी अपना आत्म-सम्मान, आत्म-गौरव और आत्मविश्वास खो चुका था, उस अंधकार के वातावरण में, उस काल में जन्में, उन्नीसवीं शताब्दी के महान योगी स्वामी विवेकानंद पथ प्रदर्शक के तौर पर सामने आए। यदि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के शब्दों में वर्णन करूँ तो “भारत की नवसन्तति में अपने अतीत के प्रति गर्व, भविष्य के प्रति विश्वास और स्वयं में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना फूँकने का प्रयत्न किया।”
1887 में एक परिव्राजक संन्यासी के रूप में जब स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण पर निकले तो उन्होंने आने वाले पाँच वर्षों तक भारत को बहुत निकटता से देखा। उनको यह स्पष्ट आभास हुआ कि भारत का आम जनमानस वर्षों की गुलामी के कारण आत्मविश्वास खो बैठा है। इससे उनको अपना कार्य स्पष्ट हो गया था। वह राष्ट्र निर्माण में सहभागी होने वाली सबसे मौलिक इकाई (भारतीय नागरिक) के अंदर विश्वास और आत्मनिष्ठा जागृत करने के कार्य में जुट गए। इस कार्य के लिए ही वह शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्व धर्म महासभा में सहभागी होने गए थे। 11 सितम्बर 1893 का उनका ऐतिहासिक भाषण, जिसने भारतीय संस्कृति, जीवन दर्शन और मूल्यों का विश्व भर में डंका बजा दिया था।
जनवरी 1897 में वे भारत वापस आए तो रामनाद से रावलपिंडी, कश्मीर से कन्याकुमारी और देहरादून से ढाका तक भारतीय नवसन्तति में स्वराज की चेतना जागृत करने का कार्य किया। उनके अनेकों भाषणों में हमें नए भारत का आधार स्पष्ट होता है, जिसमें ‘मेरी क्रन्तिकारी योजना‘, ‘भारत के महापुरुष’, ‘हमारा प्रस्तुत कार्य’, ‘भारत का भविष्य’, ‘वेदांत’ और ‘हिन्दू धर्म के सामान्य आधार’ मुख्य है।
स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचारों का इतना प्रभाव था कि बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बिपिन चंद्र पाल, योगी अरविंद और पता नहीं कितने स्वतंत्रता सेनानी प्रभावित हुए। जमशेद जी टाटा ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस की स्थापना उनसे प्रेरणा पाकर की, तो बाबा साहब आंबेडकर ने उनको सबसे महान भारतीय की संज्ञा दी।
विवेकानंद कोई भविष्यवक्ता नहीं थे, लेकिन भारतीय तरुणाई पर उनको इतनी निष्ठा थी कि अमेरिका में स्थित मिशिगन विश्वविद्यालय में पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था: “यह आपकी सदी है, लेकिन इक्कीसवीं सदी भारत की होगी।” इसलिए अमृत काल हर युवा के लिए अवसर है, जहाँ स्वामी विवेकानंद का सन्देश चट्टान की तरह उनके अंदर निर्भीकता, चरित्र निर्माण, संकल्प शक्ति, निष्ठां, नेतृत्व, स्वाभिमान, विवेक, आत्म-नियंत्रण प्रकटित करने का कार्य करेगा। भारत जागेगा तो वह मानव कल्याण के लिए विश्व को जगाएगा।
राष्ट्र निर्माण के लिए मार्ग और अनेकों सावधानियों से स्वामी विवेकानंद ने हमें अवगत किया है। वो पश्चिम के अंधे अनुकरण से बचने के लिए कहते हैं। वह स्वयं अपने जीवन काल में लगभग एक दर्जन देशों का प्रवास करने के बाद कहते हैं:
“हे भारत! यह तुम्हारे लिए सबसे भयंकर खतरा है। पश्चिम के अन्धानुकरण का जादू तुम्हारे ऊपर इतनी बुरी तरह सवार होता जा रहा है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्णय अब तर्क, बुद्धि, न्याय, हिताहित, ज्ञान अथवा शास्त्रों के आधार पर नहीं किया जा रहा है।”
इसलिए हम अच्छाइयाँ जरूर ग्रहण करें लेकिन अँधानुकरण नहीं। इसके अलावा स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा के प्रसार को रामबाण समाधान बताया था। उनके अनुसार शिक्षा से अद्भुत आत्मविश्वास जागृत होता है। भारत में भारतीय परम्परा और पद्धति पर आधारित शिक्षा हो, जो अपने अतीत के प्रति गर्व भी विकसित करे और भविष्य के प्रति विश्वास भी।
स्वामी विवेकानंद का विशेष ध्यान स्त्री शिक्षा के ऊपर भी था, जिसके लिए उन्होंने भगिनी निवेदिता को भारत आने का आह्वान किया था और फिर बाद में दोनों के अथक प्रयासों से नवंबर 1898 में प्रथम विद्यालय शुरू भी किया गया था, जो आज तक ‘रामकृष्ण शारदा मिशन सिस्टर निवेदिता गर्ल्स स्कूल’ के नाम से स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत है। इसलिए वर्षों की गुलामी के कारण स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में जो गिरावट आई थी, उसके पुनरुत्थान का कार्य उन्होंने किया था। संस्कृत के प्रचार-प्रसार और संगठित होने की आवश्यकता पर भी वो जोर देते थे।
वह मानते थे कि ईर्ष्या होने के कारण हम संगठित नहीं हो पाते, जो हमारी ताकत को विभाजित कर देती है। संगठित होना इस काल की आवश्यकता है। जातिगत भेदभाव को भी हमारी एक बड़ी दुर्बलता मानते थे स्वामी विवेकानंद। उनके अनुसार हर मनुष्य के अंदर ईश्वर विद्यमान है। मनुष्य-मनुष्य में भेद एक राष्ट के तौर पर हमको कमजोर करता है। वह मानव सेवा को ही ईश्वर सेवा मानते थे। (विवेकानन्द साहित्य, 3.345) में वो कहते हैं:
“जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता!”
जहाँ आज़ादी के पूर्व के काल में विवेकानंद क्रांतिकारियों के लिए “आधुनिक राष्ट्रवादी आंदोलन के आध्यात्मिक पिता” थे, वहीं इस अमृत काल में वह राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। अगर हम सब ठान लें तो अमृत काल स्वर्णिम काल सिद्ध होगा, जहाँ स्वामी विवेकानंद के सपनों का भारत प्रगटित होगा। लेकिन यह कार्य इतना सरल नहीं है। इसके लिए लाखों युवाओं को निस्वार्थ भाव से अपने को राष्ट्र निर्माण के कार्य में न्योछावर होना होगा। वो कहते हैं, “त्याग के बिना कोई भी महान कार्य होना संभव नहीं है।” इस कार्य के लिए स्वामी विवेकानंद का जीवन और दर्शन, प्रेरणास्त्रोत के रूप में हमारे साथ चट्टान की तरह खड़ा है।