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मैंने कमरे को पुनः पूर्व सिथति में किया तथा वहां से बाहरी कमरे में आया। मैंने सारी घटनाओं पर पुनः विचार किया पर कुछ समझ न आया।
मैं टहलने के इरादे बाहर निकला तथा टहलता हुआ नहर की तरफ चला गया। उसमें पानी नहीं था। मुझे अचानक पल याद आया। पुल पर से आसिम से पान मंगाया था। “अरे, पान को तो मैं भूल ही गया। पान, चाकू, खून…” अचानक मुझे सबकुछ समझ आ गया। फिर मैंने एक पीसीओ से 3 फोन किए। पहला, इंस्पेक्टर विचारन नरवे को, दूसरा, आसिम को और तीसरा, सबिया को। इसके बाद डेढ़ मील दूर पुल पर जाकर 3 पान खरीदे।
सबसे पहले आसिम आ गया। फिर सबिया और इंस्पेक्टर नरवे। मैंने आसिम को अपना प्लान समझाया तथा हम उस कमरे की तरफ बढ़े जहां सुमन की मां लेटी हुई थीं।
मैंने आसिम और सबिया को दरवाजे पर ही रोक दिया। मैं और इंस्पेक्टर विचारन नरवे अंदर आ गए। मैंने तुरंत तीनों पान निकाले। एक इंस्पेक्टर नरवे को दिया, दूसरा अपने मुंह में ठूंसा, फिर तीसरा सुमन की मां की तरफ बढ़ाया।
“नहीं नहीं, क्षमा करें, मैं पान नहीं खातीं?” आसिम ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “फिर आप ने मुझ से डेढ़ मील दूर से पान क्यों मंगाया?”
“वो…वह…” सुमन की मां शब्द तलाशने लगीं।
“वो… वह कुछ नहीं, अब आप सदमे का ढोंग छोड़िए और कुछ कदम चल कर दिखाइए,” मैंने कहा।
“क्यों? आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?” तेज परंतु कंपकंपाती आवाज में सुमन की मां बोलीं।
“मेरा विचार है कि कुछ कदम चलने में आप को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए,” मैंने लापरवाही से कहा।
“यह जो चाहते हैं इसमें आप को परेशानी ही क्या है?” इंस्पेक्टर ने मेरा समर्थन किया।
“हां, इस में हर्ज ही क्या है,” कहती सबिया उन्हें उठने में मदद देने के लिए आगे बढ़ी।
आखिर उन्हें चलना ही पड़ा। उनकी चाल देख कर मेरा संदेह यकीन में बदल गया क्योंकि उनके एक पैर में लचक थी।
“बस… अपने पैरों को विराम दीजिए और हाथों को हथकड़ियों के लिए तैयार कर लीजिए,” इतना कह कर मैंने इंस्पेक्टर को दूसरे कमरे में ले जाकर पैरों के निशान और चाकू दिखाया।
असल में सुमन की मां लंगड़ा कर चलती थीं, जिससे एक पैर पर अधिक दबाव पड़ता था, अतः उसका निशान गहरा बनता था। उन्होंने आसिम व सबिया को बाहर भेज दिया ताकि उन्हें पूरा अवसर मिले।
फिर मैंने आसिम व सबिया को बाहर चलने का इशारा किया, क्योंकि अब सारा काम इंस्पेक्टर का बचा था।
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