‘पत्थर पूजे हरी मिलें, तो मैं पूंजू पहाड़‘ कबीर दास ने विद्रोही स्वर में अपने मन की बात कह दी। हिन्दुओ की भावना को जहां कबीर ने कुरेदा, वहीँ मुस्लमानों को भी कबीर ने समझाते हुए हुए कहा ‘कंकर पाथर जोड़कर मस्जिद लई बनाय‘ यह बात कबीर के काल में शायद सार्थक हो गई, मगर आज हमारे देश में कबीर की बातों का अर्थ उल्टा गया है। हम धार्मिक हैं, धर्मभीरु हैं, धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तैयार हैं, चाहे वह सही हो या गलत।
हमारे देश में मंदिर को लेकर पिछले कई वर्षो से एक लहर चली, जो कभी जोर पकड़ती है, कभी धीमी हो जाती है। ‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीँ बनाएंगे’ इस उद्घोषणा पर पूरा भारत उमड़ा क्योंकि हमें रोटी-रोजी से अधिक मंदिर की चिंता है। चिन्ता हो भी भला क्यों न, क्योंकि इन मंदिरों से सहारे ही हमे मोक्ष मिलेगा, लोकप्रियता मिलेगी और हम तभी तो अपने परिवार की जिम्मेदारियों को भूलकर, छोड़कर मंदिरों के पीछे पड़े हैं।
मंदिर का बनाया जाना, मंदिर का बन जाना भी यह एक बहुत बड़ी कला है और हमारे भारत देश में कला ही तो सब कुछ है, तभी तो हर प्रकार के सीधे-उल्टे काम करने वाले हो भी हम ‘कलाकार’ कहकर पुकारते हैं। मंदिर के लिए चन्दा इकट्ठा करना भी एक कला है, जो अपने सामने वाले की मंदिर के नाम जेब हल्की न कर दें, वह कलाकार नहीं हो सकता क्योंकि धर्म के नाम पर जनता का उल्लू बनाना सबसे बड़ी कला है। इसी ल्क के सहारे ही कई लोंगो का रोजगार भी चल रहा है, तभी तो देश में अनेक स्थानों पर रोज नए मंदिर बन जाते हैं। वैसे भी किसी की जेब से पैसा और पेट में से हँसी निकालना इतना आसान नहीं हैं मगर कलाकार द्वारा सब कुछ सम्भव हो जाता है।
ऐसे ही एक पार्क में बने मंदिर में एक टी.वी. गायक गला फाड़-फाड़ कर गा रहा था।
राधे-राधे बोल, चलें आंएगे बिहारी।
नोट बरसेंगे बन, जाएगी दिहाड़ी।।
लोग झूम-झूम कर, नाच-नाच कर, पार्क में बनें इस तथाकथित मंदिर की दीर्घायु की कामना तालियां बजाकर कर रहे थे और भगवान से प्रार्थना भी कर रहे थे, इस मंदिर को नगर निगम, पुलिस और सरकार के बुरे प्रभाव से बचाएं, कभी भी बुलडोजर की बुरी नजर इन मंदिर को न लगे।
डीडीए द्वारा बसाई गई दिल्ली की एक पॉश कालोनी में एक कूड़ेदान था, जिसमें अनेक घरों का कूड़ा डाला जाता था, कालोनी के कुछ शुद्ध दादा छाप धार्मिक और धर्मभीरु लोगों ने अपने साहस का परिचय देकर इस कूड़ेदान को एकदम खाली किया, फिर कूड़ेदान को गंगा स्नान भी कराया गया, दिनभर कूड़ेदान की शुद्धिकरण के बाद शाम को एक टैंट कूड़ादान के ऊपर लगा दिया उसके आस-पास दरियां बिछा दीं और चौबीस घंटे का अखंड कीर्तन कूड़ादान’ के समक्ष हुआ। पॉश कॉलोनी के निवासियों ने अपने घर के कूड़े की चिंता किए बिना ही इस कूड़ादान के लिए भी अपना तन-मन-धन से सहयोग दिया। अखंड कीर्तन का समापन हुआ और चढ़ाए गए पैसों में से बचे पैसों से एक विशाल बजरंग बली हनुमान जी की मूर्ति इस कूड़ेदान में स्थापित कर दी, भजन गाया गया: बजरंग बली मेरी नाव चली, मेरी नैया को पार लगा देना। आज इस कूड़ेदान में बने मंदिर से प्राप्त आय से कितने लोगों का भला हो रहा रहा है, आप भी जरा इसकी कल्पना तो कर ही लें, और कालोनी को कूड़ा बेचारा अनाथ होकर गलियों में प्रदूषण तो फैला ही रहा है।
कहा जाता है कि हमारा मन ही मंदिर है। भाई, जब हमारा मन मंदिर है तो फिर हमे कूड़ादान में, पार्को में, सड़कों पर फुटपाथों पर मंदिर बना कर कौन से भगवान को मनाने की आवश्यकता आ गई है? जब इस बात पर विचार आता है तो मन उदास हो जाता है, एक नाले के किनारे भी मंदिर बनाकर कुछ लोग अपना काम चला रहे हैं, और यातायात की समस्या भला कितनी ही भीषण हो जाए मगर नाले के किनारे बना मंदिर अपनी प्रतिभा का परिचय यातायात में फंसे लोगों को तो करा ही देता है।
सबके सर मंदिर के आगे झुक ही जाते हैं, चाहे वह कोई मंत्री हो या सरकारी अधिकारी, सबके सर झुक ही जाएंगे आपके बनाये सरकारी भूमि पर इस मंदिर के आगे।
बेचारा गोपी चन्दर अपनी मछली से बार-बार प्रश्न कर रहा है ‘बोल मेरी मछली किना पानी? कौन लोग देश में अनाप-सनाप स्थानों पर तरह-तरह के मंदिर बनाकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, इस ओर पुलिस, प्रशासन और सरकार भी मौन साधे है, क्योंकि मामला भगवानों के मंदिरों का है। अभी पिछले दिनों सरकारी जमीन पर अवैधरूप से कब्जा किए हुए कुछ लोगों ने जब देखा कि बुलडोजर उनकी दुकानों की और आ रहा है तो वह सभी धर्म को ढाल बनाकर सामने आ गए, और जोरशोर से कीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया, धार्मिक वातावरण देखकर प्रशासन और पुलिस श्रद्धापूर्वक अपना शीश झुकाकर साथ लाए बुलडोजर को बिना तोड़-फोड़ किए ‘गौ बैक’ का आर्डर दे दिया।
‘ओ लल्लू-बटेर’ किस की लाजशर्म है तुम्हें उठो, जागो और तुम भी बना डालो एक सरकारी जमीन पर किसी भी भगवान का एक ऊंचा मंदिर। मंदिर को देखकर कोई भी अधिकारी, कर्मचारी तुम्हारी मूंछ का बाल भी टेड़ा न कर पाएगा। जो भी काम रिश्वत और सिफारिश नहीं कर पाएगी, वह तुम्हारे द्वारा बनाया गया अवैध या वैध मंदिर करा देगा। फुटपाथी मंदिर की आड़ में तुम जो चाहो, जिस तरह का चाहो धन्धा कर सकते हो, क्योंकि बने मंदिर अकसर बस्ती से दूर और अलग होते हैं। जनता तो धर्म के नाम पर दीवानी है, जनता को तो केवल मंदिर से वासता है, तुम्हारे अच्छे या बुरे कामों से जनता का क्या लेना देना। जनता को उल्लू बनाओ, पैसा बटोरो और मौज मनाओ। एक महीने में एक नया मंदिर किसी-न-किसी पार्क में, किसी नाले के किनारे, सड़क या फुटपाथ पर बनाकर उसे किसी भी नेता छाप दादा को बेच दो, फिर नए मंदिर निर्माण में लोगों को इकट्ठा करके उन से तन-मन-धन का भरपूर सहयोग ले लो, चलो देर मत करो, बना डालो एक और मंदिर ….।