अफगानिस्तान के नंगे और खुश्क पहाड़ों में भटकने वाले इस अफगान ने अपने मुक्ल में रोटी और चटनी के लिए लोगों को लड़ते देखा था और यहां दिल्ली में सोनेचांदी के बरतनों को राजमहलों में इस तरह बिखरते देखा मानो वे मिट्टी के हों। ठीक है, तख़्तेताऊस तो दिल्ली के बादशाह ही बना सकते थे। छोटामोटा राज्य तो उसे खरीदने में खुद ही बिक जाता।
अब्दाली की इच्छा पूरी हुई। सन 1747 में नादिरशाह अपने ही लोगों द्वारा मारा गया। दिल्ली की लूट का माल इस बार ईरान में लूटा। अब्दाली ने मौके का फायदा उठाया, खूब बढ़चढ़ कर हाथ मारे। उस ने ईरान की दासता का जुआ अपने कंधो से उतार फेंका और खुद ही अफगानिस्तान का बादशाह बन बैठा। अब्दाली दिल्ली को भूल नहीं था, भूल भी नहीं सकता था, अब उस ने उत्तर भारत को लूटने के लिए सेना गठित कि। नादिरशाह का आदर्श उस के सामने था। इतिहास साक्षी है कि उस ने सन 1748 से 1768 तक भारत पर आठ बार हमले किए।
इन दिनों दिल्ली में मुगल सल्तनत बुरी तरह डगमगा रही थी। नादिरशाह ने उसे वह धक्का दिया था कि उस की रीढ़ की हड्डी ही टूट गई थी। इस समय भारत का बादशाह अहमदशाह नामक 21 वर्षीय अनुभवहीन नवयुवक था जिसे शासनकार्य में रत्ती भर भी रूचि नहीं थी। उसे रूचि थी तो केवल खूबसूरत युवतियों के साथ रंगरलियां मनाने में। वह अत्यंत विलासी, कायर, अयोग्य, आलसी और मनमौजी था। जाबिद खां नामक एक गुलाम उस का विशेष कृपापात्र था जो उस के हरम की सभी सुंदरियों और हिजड़ों की फौज का सिपहसालार था।