वह सिखों को न मिटा पाया। बाद में सिखों ने पठानों से इस हत्याकांड का डट कर बदला लिया और एक दिन ऐसा भी आया जब सिखों के महान सम्राट महाराजा रणजीतसिंह की शरण के पौत्र शाह शुजा ने अपने दिन बिताए।
जब अब्दाली पंजाब में मराठों और सिखों साथ युद्ध में लगा हुआ था तो मौका देख कर कश्मीर के सूबेदार सुखजीवन ने अफगानों का जुआ उतार फेंका और अपने आप को कश्मीर का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उस ने वहां के सभी पठानों को मार भगाया सुखजीवन को अपनी स्वतंत्रता घोषित करने के संबंध में कश्मीर के सभी ब्राहाणों और मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था। कारण यह था कि कश्मीर के हिन्दू-मुसलमान दोनों ही हिंदुस्तान के निकट रहना पंसद करते थे, अफगानिस्तान के साथ मिलना उन्हें पसंद नहीं था। जब इन लोगों को यह मालूम हुई कि अब्दाली ने दिल्ली के मुगल बादशाह से कश्मीर का सुंदर प्रदेश छीन लिया है तो वे प्रसन्न नहीं हुए बल्कि उबल ही पड़े। उन्हें सूबेदार भी सुखजीवन मिला जो सियालकोट का एक पंजाबी हिंदू होने से उन के अपने देश का था।
प्रजा का समर्थन पा कर सुखजीवन कश्मीर को स्वतंत्र राज्य घोषित। अब्दाली ने सेना दे कर नुरुद्दीन को भेजा। सुखजीवन पास ऐसी प्रबल सेना नहीं थी जो अफगानों का मुकाबला कर पाती अंत में वह हार गया। सेनापति नुरुद्दीन ने उसे जंजीरों जकड़ा और लाहौर में ला कर अब्दाली के पैरों में पटक दिया।
अब्दाली ने उस से पुछा, “क्यों बे नमकहराम काफिर, तू कश्मीर में मेरे खिलाफ बगावत कर के खुद बादशाह बनने की हिम्म्त कैसी की?”
सुखजीवन ने निर्भय हो कर कहा, “कर कोई बादशाह जब किसी नयी सल्तनत की नींव डालता है तो शुरू में नमकहराम होता है। यदि ऐसा न होता तो आज एक ही वंश का सब जगह राज्य होता। इसिहास इस का साक्षी है। और आप भी नमकहरामी के पाप से दूर कहां हैं? आप ने भी तो शाही ईरान इलाका दबा कर और अपने को आजाद बना कर नया राज्य खड़ा किया है।”