लेकिन अपने गुरु के ये पक्के शिष्य (सिख) मानो अमर हो कर निकले थे। जब सारे हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की खुनी तलवार उन्हें नहीं मिटा सकी तो यह सूबेदार उन का नामोनिशान कैसे मिटा सकता था। सिखों में एक कहावत मशहूर है : ‘मन्नू साडी दातरी असी हां उस दे सोए, ज्योंज्यों मन्नू वड डा घरीघरी असी होए।’
अर्थात, मन्नू हमे काटने वाली दरांती है और हम सोआ का साग हैं। ज्योंज्यों मत्रू हमे काटता है, वैसेवैसे हम क्षण प्रतिक्षण फिर बढ़ जाते हैं।
यह कहावत बिलकुल सच है। मुसलमान शासकों ने सिखों पर एक से एक बढ़ कर जुल्म किए पर वे हमेशा उन को चुनौती देते हुए खड़े रहे।
सन 1752 में अब्दाली फिर तीसरी बार पंजाब को लूटने आ धमका। कारण यह था कि मन्नू खां ने पिछले दो सालों का राजस्व उसे नहीं भेजा था। अब्दाली ने अपने दूत उस के पास भेजे, मन्नू खां ने बचत और वसूली न होने का रोना रोया, पर अब्दाली इस बहाने से संतुष्ट नहीं हुआ और चिनाब के किनारे आ डटा, अब्दाली के सामने मन्नू खां की फौज टिंक न सकी। युद्ध में जकड़ कर अब्दाली के सामने पेश किया। अब्दाली ने लाललाल विकराल आंखों से उसकी और देखा। एक बार पंजाब में फिर सिकंदर और पुरु का दृश्य उपस्थित हो गया। विजेता अब्दाली और विजित मीर मन्नू खां में झड़प हुई। अब्दाली ने पूछा, “तुम मुझे सलाम करने क्यों नहीं आए।”
“क्योंकि मैं पहले ही अपने एक मालिक को सलाम करता हूं,” मीर मन्नू ने दृढ़ता से कहा।
“तो इस मुसीबत में तुम्हारा मालिक तुम्हें बचाने के लिए क्यों नहीं आया?”
“क्योंकि वह जानता हैं कि उस का नौकर खुद ही अपनी रक्षा कर सकता है।”
“अगर मैं तुम्हारे हाथ पड़ जाता तो तुम मेरे साथ क्या व्यवहार करते?”
“मैं तुम्हारा सिर उतार कर अपने मालिक के पास दिल्ली भेज देता।”
“इस समय तुम मेरे काबू हो, मुझ से तुम क्या उम्मीद रखते हो?”
“अगर तुम व्यापारी हो तो मुझे बेच दो, अगर तुम जालिम हो तो मुझे कल्ल कर दो और अगर तुम बादशाह हो तो मुझे माफ कर दो।”