परिणाम यह हुआ कि इस बार पंजाब में अब्दाली को एक भी ‘पगड़ी वाला शेर’ घूमता हुआ दिखाई नहीं दिया। वह मन में बहुत खुश हुआ। कुछ समय लाहौर में रुका रहा और हवा का रुख सूंघता रहा। जब उसे जासूसों से आगे की स्थिति का पता लग गया कि सामने ‘दाढ़ी वाले शेरों’ का जमाव नहीं है तो वह सावधानी से सरहिंद आ पहुंचा और यहां दिल्ली की खबर लेने लिए रुका रहा। उस ने वजीर से कहा, “इस बार किस्मत अच्छी दिखती है। न तो पंजाब दाढ़ी वाला शेर मिला है और न दिल्ली से ही कोई फौज आई है।”
वजीर बोला, “हुजूर, मुझे दिल्ली का इतना खतरा नहीं, अलबत्ता पंजाबी शेरों की और से अब भी दिल में हड़कंप मचा रहता है, पता नहीं वे जिन्न की तरह कब टूट पड़े। हमारी फौज में इस बात की बड़ी दहशत फैली हुई है की इस सिखों ने बड़े बड़े ताकतवर भूत पाल रखे हैं वे चाहे जो रूप बना कर और हवा में उड़ कर भी आ धमकते हैं।”
अब्दाली ने कहा, “मैंने मौलवि-मुल्लाओ से तावीज बनवा कर बंधवा दिए हैं किसी भूत या जिन्न का उन पर असर नहीं होगा। तुम ने उन को समझा तो दिया है न?”
अब्दाली ने माथे पर हाथ रख कर कहा, “पिछली बार जब मैं दिल्ली लूटने की ख्वाहिश से चला था तो इन सिखों ने यहीं सरहिंद में मेरे मंसूबे मिट्टी में मिला कर रख दिए थे। इस बार पता नहीं कहां जा छिपे हैं। कहीं कंबख्त हमें दिल्ली में ही न जा घेरें?”
“आलमपनाह, अभी दिल्ली तक धावे मारने की उन में ताकत नहीं है।”
“कोई पता नहीं, कोई पता नहीं, “अब्दाली ने सिर हिलाते हुए कहा।
“जरा फौज एक दो दिन आराम कर ले तो दिल्ली चलूं। तब तक मेरे जासूस भी वहां की खबर ले आएंगे।”