दरबार में शेख निजामुद्दीन के विरुद्ध इस शिकायतनामे के दाखिल होते ही उन्हें तुरंत तुगलकाबाद में बुलाया गया। मामला बड़ा संगीन था, जिस की सजा मौत तक हो सकती थी। दरबार में फतवा देने की हस्ती रखने वाले कितने ही उलेमा मौजूद थे। उलेमाओं के अलावा 253 मुफ्ती भी उपस्तिथ थे। शेख के खिलाफ चलने वाले इस मुकदमे से शहर में बड़ी हलचल सी मच गई थी। लोग तरह तरह की अटकलें लगा रहे थे। बहुत से लोगों का विचार था कि इस बार सुलतान ने उलेमा और मुफ्तियों की फौज को शेख के खिलाफ खड़ा कर के ऐसा जबरदस्त जाल फैलाया है जिस में से उसका निकलना संभव नहीं है।
सुलतान का हुक्मनामा पा कर शेख निजामुद्दीन अपने चुने हुए शिष्यों के साथ दरबार में पहुंचे। दरबार में चारों ओर सैंकड़ों उलेमा, काजी और मुफ्ती उनके विरुद्ध कमर कसे बैठे थे। न्याय का नाटक रच कर वे सब एक निर्दोष सूफी संत के साथ अन्याय करने पर तुले हुए थे। शेख निजामुद्दीन निर्भय हो कर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हो गए।
प्रधान काजी ने शेख से पूछा, “क्या सूफी लोग गाबजा कर ‘सिमा’ (उपासना) करते हैं और ऐसी उपासना का औचित्य क्या है?”
संत ने उत्तर दिया, “मैं और मेरे शिष्य सूफी विधि विधान के अनुसार ‘सिमा’ करते हैं। यह हमारे धर्म के नियमों में स्वीकृत है।”
“कोई प्रमाण दो,” काजी ने दाढ़ी सहलाते हुए कहा।
शेख ने ‘हदीस’ से अनेक प्रमाण दे कर इस उपासना पद्धति का औचित्य सिद्ध किया। इस पर काजी चिड़चिड़ा उठा और बोला, “मैं मुज्तहिद नहीं हूं, मुझे अबू हनीफ द्वारा निश्चित विधि विधानों से प्रमाण दो।”
काजी की इस अडंगेबाजी को सुन कर संत ने दृढ़ स्वर में कहा, “मैं पैंगबर मुहम्मद साहब (खुदा उन्हें शांति और मुक्ति दे) के प्रमाण और कथन प्रस्तुत कर रहा हूं और आप चाहते हैं कि मैं अबू हनीफ के विधान को उदधृत करूं। तुम कैसे अजीब काजी हो जो पैंगबर की बात का भी महत्व नहीं समझ पाते? यदि इस तरह की बचकानी बातें सुलतान को खुश करने के लिए यह सब हठ कर रहे हो तो तुम ने अभी तक न अल्लाह को पहचाना है न अपने आप को।”
संत से यह फटकार खा कर काजी का मुंह लटक गया। सारे देश में सन्नाटा छा गया। सुलतान और उसके समस्त काजी, उलेमा व मुफ्तियों के सर निचे हो गए। किसी की कुछ और कहने या पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। संत निजामुद्दीन का मुख मंडल जगमगा रहा था।