मौलाना अलमुद्दीन ने शेख निजामुद्दीन को दरबार में काजी, उलेमाओं और मुफ्तियों के बिच घिरा देख कर, वातावरण की गर्मी और तनाव भांप कर सुलतान से इस विषय में पूछा, “इतने महान संत को दरबार में बुला कर कष्ट क्यों दिया गया?”
सुलतान ने उत्तर दिया, “शहर के उलेमाओं ने दरबार में शेख निजामुद्दीन की शिकायत की है कि लोग जोरों से गा बजा कर ‘सिमा’ करते हैं। इस विषय में आप भी अपनी राय दें कि यह काम शरीयत के खिलाफ है या नहीं?”
मौलाना ने निशंकभाव से उचित उत्तर दिया, “मैंने मक्का, मदीना, मिस्त्र, सीरिया आदि ऐसे कट्टर इस्लामी देशों की यात्रा की है जहां के लोग शरीअत के अनुसार चलते हैं। लेकिन उन स्थानों पर भी मैंने देखा कि सूफी भक्तिपूर्वक गाते हैं, साज बजाते हैं, कीर्तन करते हैं। इस तथ्य शरीअत के रक्षक काजी, इस्लाम के रखवाले सुलतान, मुल्ला, मौलवी, उलेमा सभी अच्छी तरह जानते हैं किंतु वे सूफियों की उपासना पद्धति में किसी प्रकार की रोकटोक नहीं हैं।
इन देशों के सूफियों को न तो सुलतान से किसी प्रकार का भय है और न उलेमाओं से। अधिकारी वर्ग उनके मार्ग में किसी प्रकार की रूकावट नहीं डालते। इसी तरह यदि शेख निजामुद्दीन औलिया और उनके शिष्य संकीर्तन करते हैं, अपने धर्म के अनुसार पूजा उपासना में लीन रहते हैं तो आपको या आपके उलेमाओं को उनके साथ रोकटोक नहीं करनी चाहिए। ये बड़े धर्मनिष्ट और पवित्रात्मा संत हैं। वास्तव में इतिहास से भी इस बात की पुष्टि होती है कि पैगंबर मुहम्मद (अल्लाह उन पर दया और शांति की वर्षा करे) भी ऐसे भजनकीर्तनों में उपस्तिथ होते थे और सत्य की खोज में समाधि लगा कर गदगद हो जाते थे।”
जब सुलतान गियासुद्दीन तुगलक ने मौलाना अलमुद्दीन का विचार सुना तो उसे शेख निजामुद्दीन के प्रति अपनी दुर्भावना पर बहुत पश्चाताप हुआ। उसने भरे दरबार में शेख को गले लगाया और अपने दुर्व्यवहार के लिए बारबार क्षमा मांगी। उन्हें सम्मान सहित अनेक उपहार व भेंट दे कर विदा किया। उस दिन से सुलतान शेख निजामुद्दीन का भारी प्रशंसक और भक्त्त बन गया। सुलतान ने अपने खर्च से शेख का दरगाह दिल खोल कर बनवाया।
इस घटना के कुछ दिन बाद सुलतान लखनौती (बंगाल) के अभियान पर चल पड़ा। सुलतान ने लखनौती पर विजय प्राप्त की। वहां से वह तिरहुत की ओर मुड़ गया और उस प्रदेश पर भी विजय प्राप्त कर के बहुत बड़े भूखंड पर अधिकार जमा लिया। इन विजयों से यश व धनसंपति पा कर वह दिल्ली की ओर लौटा। उसने शेख निजामुद्दीन के पास संदेश भेजा कि वे उसके दरबार में उपस्तिथ हो कर दर्शन दें और शाही छावनी का मान बढ़ाएं। संत ने उत्तर भेजा, “इस जिंदगी में अब हमारा और आप का मिलन नहीं हो सकता क्योंकि आप के दिल्ली पहुंचने से पहले ही मेरी मृत्यु हो जाएगी, और आप के लिए भी अभी दिल्ली दूर है – हनोज दिल्ली दूर अस्त।”