क्या वह सचमुच इस महान आत्मा के दर्शन नहीं कर सकेगा? ‘अभी दिल्ली दूर है’ कथन का क्या अभिप्राय है? सुलतान ने अपने विश्वस्त अमीरों से विचार विमर्श किया और जल्दी जल्दी पड़ाव पर पड़ाव डालता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ने लगा.
रास्ते में उसे सहसा एक विचार सुझा कि संत की भविष्यवाणी की परीक्षा की जाए। अभी वह दिल्ली से सैकड़ों मील दूर था कि उसने घोड़ों पर सरपट अपने दूत दौड़ाए। सुलतान के वे शाही दूत बेतहाशा घोड़े दौड़ाते हुए दिल्ली आ पहुंचे। संध्या से पूर्व ही सुलतान द्वारा भेजे गए उपहारों को सामने रख कर निवेदन किया, “सुलतान तुगलक शाह लखनौती और तिरहुत पर विजय प्राप्त कर के दिल्ली पहुंच चुके हैं और शाही महलों में आप के दर्शनों का इंतजार कर रहें हैं।”
शाही दूतों की यह बात सुनकर एक क्षण के लिए उस संत की आखें बंद हुई। अगले ही क्षण उन में प्रकाश की नई चमक दिखाई दी और उन्होंने मुसकरा कर केवल इतना ही कहा, “हनोज दिल्ली दूर अस्त (अभी दिल्ली दूर है)।” संत के इन रहस्यमय शब्दों को सुन कर दूतों के मन में खलबली मच गई, वे शेख के चरणों में गिर पड़े और उन्हें रो रो कर बताया, “सुलतान अभी सचमुच दिल्ली से सैंकड़ों मील दूर हैं, संत के सत्य की परीक्षा के लिए ही उन्हें यह झूठा संदेश दे कर भेजा गया है।”
शाही दूतों की व्याकुलता देख कर शेख के मुख पर करुणा छलक उठी। उस ने उसी मुस्कराहट के साथ उनके सिर पर हाथ रखा और अभयदान दिया। शाही दूतों को विदा कर के शेख ने अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया और ध्यान में लीन हो गए। इसी समाधी की दशा में उन का प्राणांत हो गया। यह 3 अप्रैल, 1325 ई: की घटना है।
शेख निजामुद्दीन औलिया के प्राणांत का समाचार पा कर सुलतान बहुत दुखी हुआ। संत के संदेश का प्रथम भाग पूरा हो चूका था। सुलतान के लिए सचमुच अभी दिल्ली दूर थी। तुगलकशाह बहुत परेशान हो उठा और सोचने लगा, “संत के ‘अभी दिल्ली दूर है’ कथन का क्या अर्थ हो सकता है? संतो की बातें बड़ी अटपटी और रहस्यमयी होती हैं। कौन जाने उन की तह में क्या हो?”
शेख की मृत्यु के बाद सुलतान अजीब तरह की घबराहट अनुभव करने लगा। उसे ऐसा आभास होने लगा कि शीघ्र ही उसके साथ कुछ अनहोनी घटने वाली है। उसने तय किया कि जल्दी से जल्दी दिल्ली पहुंचा जाए.
इसी बीच बरसात जोरों से शुरू हो गई। नदियां उमड़ने लगीं, मार्ग दुर्गम हो गए। हजार यतन करने पर भी सुलतान अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ पाता था, लेकिन रुक भी नहीं सकता था। उसी बारात में अनेक कष्ट उठाते वह आखिर दिल्ली के निकट पहुंच ही गया। ज्यों ज्यों दिल्ली निकट आती जा रही थी त्यों त्यों उसका ह्रदय किसी अज्ञात भय से डूबता जा रहा था। सुलतान के साथ प्रबल शक्तिशाली सेना थी, अतः उसे क्या भय हो सकता था? वह दरबार अपने ह्रदय को समझाता, पर शंका का कांटा दूर न होता।
अब सुलतान दिल्ली से केवल 50 कोस के फैसले पर रह गया था। क्या अब भी उस जैसे शक्तिशाली सुलतान से दिल्ली दूर रह गई थी जैसा कि महान शेख ने कहा था। सुलतान ने तुरंत अपने दूत दिल्ली भेजे और अपने पुत्र उलूगखान (बाद में सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक) को संदेश भेजा कि अपने विजयी पिता के लिए दिल्ली से बाहर एक सुंदर महल शीघ्र ही तैयार करे जहां वह एक रात बिताकर प्रातः काल शाही जुलुस के साथ राजधानी में प्रवेश करेंगे।