सुलतान गियासुद्दीन तुगलक ने बड़ी धूमधाम से अपने अमीरों, मलिकों और सेनाओं के साथ अफगानपुर में प्रवेश किया। अभी संध्या दूर थी। सुलतान और उसकी विशाल सेना के आगमन से इस गांव में बहुत चहलपहल हो गई थी। शहजादा उलूगखान ने आगे बढ़ कर अपने विजयी पिता का स्वागत किया और उन्हें नए महल में ले गया। सुलतान अपने आज्ञाकारी सुपुत्र की विनम्रता और पितृभक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ। उसके बनवाए हुए महल तथा साजसजावट की बहूत प्रशंसा की।
शहजादा सच्चे पितृभक्त पुत्र की भांति चुपचाप विजय की मूर्ति बना अपने पिता और उसके अमीरों के पीछे-पीछे चल रहा था। नीचे अफगानपुर गांव में चारों ओर टिड्डीदल की तरह उसकी सेनाएं घिर आई थीं, जहां तक दृष्टि जाती थी, सेना के खेमे के खेमे ही नजर आते थे। दूसरी ओर दिल्ली और तुगलकाबाद के किलों की बुर्जें, ऊंची इमारतें व मीनारें साफ-साफ दिखाई पड़ रही थीं.
सुलतान उस महल की छत पर अपने अमीरों के साथ चहलकदमी करता हुआ चारों ओर का दृश्य देख रहा था। वह सोचने लगा, “क्या अब भी दिल्ली दूर है। 3-4 कोसों पर ही मेरी प्यारी राजधानी है। केवल एक रात और प्रातः काल तो बादशाही जुलूस के साथ अपनी दिल्ली के सुंदर रंगमहलों में होगा। वह निश्चय ही शेख निजामुद्दीन औलिया की बात को झूठी सिद्ध कर देगा। दिल्ली पास है, सदा मेरे पास है।”
सुलतान की भाव तरंगे सहसा रुक गई। सामने शहजादा उलूगखान सिर झुकाए निवेदन कर रहा था, “अब दोपहर की नमाज का समय हो रहा है, जहांपनाह नीचे पधारें। नमाज के बाद भोजन करके मेरे हाथियों की सलामी लेना मंजूर करें।”
सुलतान इस प्रस्ताव से बहुत प्रसन्न हुआ। ऐसे सपूतों के भरोसे ही तो सल्तनतों की नीवें मजबूत होती हैं। सुलतान अपने अमीरों के साथ बीच की मंजिल पर उत्तर आया, जहां उसने सबके साथ नमाज पढ़ी और भोजन किया। शहजादा हाथियों को सलामी ले लिए जाने के बहाने से निकल गया। इसके थोड़ी ही देर बाद पचास सजे सजाये हाथी पंक्त्तिबद्ध रूप में आते दिखाई दिए। वे पांच पंक्तियों में खड़े हो गए।
शहजादा अपने अंतरंग मित्रों के साथ एक ओर खड़ा था। उसने महावतों को संकेत किया। उनके अंकुश निचे झुके। हाथियों ने चिंघाड़ मारी और सूंड से सलामी की। इसके बाद अचानक न जाने क्या हुआ कि हाथी आंगन में तितर बितर हो गए। वे बेकाबू जैसे हो गए। उन्होंने महल की दीवारों में टक्कर मारना शुरू किया जिससे वह आलीशान महल सब के देखते देखते बालू की भीत की तरह ढह गया। अब तो भारी भगदड़ मच गई। किसी की समझ में कुछ न आता था। सुलतान अपने अमीरों के साथ महल में ही दब गया। अब तो हाहाकार मच गया। सुलतान और अमीरों को बचाने के लिए मलवा हटाया गया। उस समय सुलतान गहरी मूर्च्छा में था, रुकरुक कर सांसे चल रहीं थी।
हकीमों के पास सवार दौड़ाए गए। दवाओं से उसे कुछ समय के लिए चेतना हुई। उसने पानी के लिए संकेत किया। सेवक जल लाने के लिए दौड़े। सुलतान उसे पी भी न सका। उसके मुंह से केवल ये शब्द निकले, “हनोज दिल्ली दूर अस्त” (अभी दिल्ली दूर है)। इसके बाद सदा के लिए उसकी आंखें बंद हो गईं। सचमुच सुलतान तुगलकशाह से दूर रह गई। पास होते हुए भी दूर-बहुत दूर।