अनोखा दशहरा: बहुत समय पहले की बात हैं। उदयपुर राज्य में एक राजा राज्य करता था माधोसिंघ। उसके दिमाग में रह रह कर तरह तरह के फ़ितूर आते रहते थे। इस कारण कभी तो उसकी हरकतों पर लोग हँसते हँसते लोटपोट हो जाते तो कई बार उसे सबके साथ इसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता पर वो अपनी पुरानी गलतियों से सीख ना लेते हुए एक के बाद एक हरकतें करता ही रहता।
इसी तरह एक बार बहुत ही मजेदार घटना हुई, जिसने वहाँ के लोगो को सालों साल हँसने पर मजबूर कर दिया। माधोसिंघ अपने बचपन के दोस्त उदयसिंघ के राज्य जा पहुँचा। वहाँ पर जोरों शोरों से किसी उत्सव की तैयारियाँ चल रही थी।
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माधोसिंघ ने कहा – “तुम्हारा पूरा नगर फूलों से सजा हुआ हैं और सभी लोग नए कपड़े पहनकर कितने अच्छे लग रहे हैं।”
उदयसिंघ खुश होता हुआ बोला – “कल दशहरा हैं ना, इसलिए नगर में चारों तरफ़ उसी की धूमधाम हैं।”
“अरे, ये तो मुझे याद ही नहीं था… अब मुझे भी वापस अपने राज्य लौटना चाहिए वरना रावण को तीर कौन मारेगा?”
उदयसिंघ हँसते हुए बोला – “तो क्या रावण को हर साल तुम्हीं जलाते हो?”
माधोसिंघ इस पर खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला – “रावण को तो श्री राम ने मारा था, मैं तो उसका पटाखों से भरा हुआ पुतला जलाता हूँ।”
और फिर दोनों ही इस बात पर ठहाका लगाकर हँस पड़े।
तभी उदयसिंघ का दूत आकर बोला – “महाराज, कल दशहरा हैं ना… तो क्या हर साल की तरह सोने के पत्ते कल पूरे राज्य में बँटवाने हैं?”
“हाँ, ये भी कोई पूछने की बात हैं जाओ और उसकी व्यवस्था करो।” माधोसिंघ का मुँह बात सुनकर खुला का खुला रह गया और वो धीरे से बोला – “तो क्या तुम मुझे वो पत्ते नहीं दोगे?”
“क्यों नहीं दूंगा, जितने चाहिए उतने ले लो… पर वो तो दशहरे के दिन ही बँटते हैं।”
माधोसिंघ यह सुनकर खुश होते हुए बोला – ” मैं तो अभी वापस जा रहा हूँ। तुम मुझे कल एक हज़ार बोरे उन पत्तों से भरकर भिजवा देना।”
उदयसिंघ उसकी तरफ हैरत से देखते हुए बोला – “कहीं तुम सच में पागल तो नहीं हो गए हो? इतने सारे पत्तों का तुम करोगे क्या?”
माधोसिंघ यह सुनकर दुखी हो गया और बोला – “तुम पूरे राज्य में सोने के पत्ते बँटवा सकते हो पर अपने बचपन के दोस्त को देने में आनाकानी कर रहे हो।”
यह सुनकर उदयसिंघ ने मधोसिंघ को गले लगाते हुए बड़े ही प्यार से कहा – “तुम दुखी मत हो… कल शाम तक तुम्हारे पास एक हज़ार बोरे पहुँच जायेगे।”
यह सुनकर माधोसिंघ बच्चों की तरह खुश हो गया और हँसते हुए उदयसिंघ से विदा लेकर वापस अपने राज्य चला गया। राज्य में जाकर उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि उसका दोस्त दशहरे की शाम को उसे तोहफे में सोने के पत्तें भिजवा रहा हैं, जिसमें से एक पत्ता वो अपने राज्य के हर परिवार को देगा।
सारी प्रजा में ख़ुशी लहर दौड़ गई और पूरा नगर सीधे राजमहल पहुँच गया। शाम होते होते उदयसिंघ के भेजे हुए सैनिकों ने आकर एक हज़ार बोरे लाकर राजमहल के सामने रख दिए। जब माधोसिंघ के सैनिक उन्हें अंदर ले जाने लगे तो माधोसिंघ ने उन्हें रोक दिया और कहा – “पहले हम अपनी प्रजा को तो सोने के पत्तें बाँट दे उसके बाद जो बचे वो अंदर राजमहल में रखना।”
यह सुनते ही सभी लोगो के चेहरों पर मुस्कान खिल गई और वे सब जल्दी से उन बोरियों के खुलने का इंतज़ार करने लगे। जैसे ही पहला बोरा खुला उसमें से हरे-हरे ताजे पत्तें निकल कर ज़मीन पर बिखर गए।
माधोसिंघ को तो जैसे साँप सूंघ गया, उसने किसी तरह खुद को संभाला और दूसरे बोरे को खोलने का इशारा किया। पर उसमें भी हरे हरे पत्तें थे। लगातार एक के बाद एक बोरे खुलते रहे पर उन में से इन हरे पत्तों के अलावा कुछ नहीं निकला। प्रजा भी हक्की बक्की खड़ी थी और किसी के कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी माधोसिंघ गुस्से में चिल्लाया और वहाँ खड़े उदयसिंघ के सैनिको से पूछने लगा – “मेरे दोस्त ने तो सोने के पत्ते भिजवाये थे ना, तो तुम सब ये पेड़ों से तोड़कर हरे पत्ते कहाँ से ले आये?”
यह सुनकर एक सैनिक डरता हुआ बोला – “यही तो शमी वृक्ष के पत्तें हैं, जिन्हें हम सोने के पत्ते कहते हैं, क्योंकि इसके पीछे एक पौराणिक कथा हैं”।
माधोसिंह यह सुनकर हक्का बक्का रह गया और थूक निगलते हुए बोला – “कथा… कौन सी कथा?”
सैनिक बोला – “बहुत समय पहले देवदत्त नाम के एक ब्राह्मण के कौत्स नाम का एक पुत्र था। अपनी शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब उसने वरतन्तु ऋषि से गुरुदक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने चौदह विद्याओं के लिए चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राएं माँगी, तो कौत्स ने राजा रघु से जाकर सहायता माँगी।
राजा रघु ने इंद्र से कहा तो इंद्र ने कुबेर के द्वारा सोने के सिक्के बरसवाये जो सीधे शमी के पेड़ पर गिरे। कौत्स ने अपने गुरु को उनकी गुरुदक्षिणा देने के बाद वो सिक्के अयोध्या के लोगो में दान कर दिए और इसलिए तभी से लोग इन पत्तों को आपस में लेते-देते हैं और इन्हें सोने के पत्ते कहा जाता हैं। सैनिक की बात खत्म होते ही वहाँ हँसी का फ़व्वारा फूट पड़ा। लोग माधोसिंह की मासूमियत पर एक बार फिर ठहाके लगा रहे थे और बेचारा माधोसिंघ हमेशा की तरह उन सभी के साथ जोरो से अपना मोटा पेट पकड़ कर हँस हँस कर दोहरा हुआ जा रहा था।