“हां, लगता तो ऐसा ही है,” बिल्लू ने कहा।
“लगता तो कुछ ऐसा ही है, राजू दा…” पवन हां में हां मिलता हुआ बोला।
“फिर तो यह भी हो सकता है कि कीर्तन मंडली और उस चोर में साठगांठ हो,” बिल्लू जो काफी देर से चुप था, बोला, “और अब किसी के घर में कीर्तन मंडली जाती हो, तो उस की सूचना उस चोर को पहले से ही दे देती हो।”
बिल्लू की यह बात राजू को काफी हद तक सही लगी। अतः वह कुछ सोचता हुआ बोला, “यार बिल्लू, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कीर्तन मंडली वाले खुद ही पहले कीर्तनभजन के बहाने घर की पूरी जानकारी ले लेते हों और रात में जब सब थकेमांदे सो जाते हों तो खुद ही सारा मालमत्ता साफ़ कर देते हों।”
“वाह राजू दा, वाह, यह हुई न बात, इसी को कहते हैं दूर की कौड़ी लाना,” बिल्लू ख़ुशी से उछलता हुआ बोला।
“तो फिर हाथ कंगन को आरसी क्या?” राजू कुछ सोचता हुआ बोला।
“और पढ़ेलिखे को फ़ारसी क्या?” बिल्लू ने तुक्का भिड़ाया।
“क्या मतलब?” पंकज ने हक्काबक्का हो कर पूछा, क्योंकि उस की समझ में दोनों में से किसी की बाते नहीं आ रही थीं।
“मतलब यह की परसों मेरा जन्मदिन है। इस बार मां या पिताजी कह कर मैं अपने ही यहां अखंड कीर्तन करवा डालता हूं।” राजू बोला।
“वाह राजू दा, वाह, यह हुई न बात,” बिल्लू बोला, “जन्मदिन का जन्मदिन भी हो जाएगा और तोहफे में हो सकता है एक अदद चोर भी मिल जाए।”
“तो फिर शुरू कर दूं कीर्तन की तैयारियां?” पंकज ने पूछा।
“क्या यह भी बताना होगा,” राजू ने कहा और फिर सारी योजना सब को समझा दी।
और फिर तो सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा राजू ने सोचा था।
दो दिन बीतते समय न लगा और देखते ही देखते वर्षगांठ का दिन आ गया। रात आठ बजे तक वर्षगांठ के उपलक्ष्य में दी गई पार्टी चलती रही। उस के बाद कीर्तन मंडली वालों ने अपनी जगह संभाल ली। महल्ले के बड़े बुजर्गो को तो जैसे खोई हुई निधि मिल गई। अखाड़े में उन्होंने अपनी अपनी जगहें संभाल लीं। देखते ही देखते कीर्तन अपने पुरे शबाब पर आ गया।