धीरे-धीरे वह समय भी आ गया।
महल्ले की औरतें और आदमी प्रसाद लेले कर और राजू को आशीर्वादों की खाली पोटली थमा कर अपने अपने घर चले गए। नाते रिश्तेदार भी खापी कर अपने अपने घरों को प्रस्थान कर गए। राजू ने मां और पिताजी से कह कर पंकज और बिल्लू को भी अपने पास रह जाने की अनुमति ले ली। देखते ही देखते सारे लोग अपने अपने बिस्तरों में घुस जल्दी ही खर्राटे भरने लगे।
लेकिन राजू और उस की मंडली की आंखों में नींद थी।
रात की ख़ामोशी में मां और पिताजी के खर्राटे गूंज रहे थे, किंतु इन सब से बेखबर राजू और उस की मंडली के कान किसी दूसरी ही आहट की प्रतीक्षा कर रहे थे।
और इस के लिए उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा।
दूर कहीं से दो के घंटो ने नीरवता भंग की और सहसा धप्प की आवाज ने उन्हें चौका दिया, उन्होंने रात के उस अंधेरे में ही एक दूसरे को कुछ इशारा किया और सब की आंखे आवाज की दिशा में ठहर गई।
एक साया उन्हें रेंगता हुआ सा महसूस हुआ, जो धीरे-धीरे उस कमरे की तरफ बढ़ता जा रहा था, जिस कमरे में अलमारी और सन्दूक इत्यादि रखे थे।
साए ने एक बार बाहर खड़े हो कर चोकन्नी निगाह से उस अंधेरे में देखा और फिर दरवाजे पर झुक गया।
और फिर थोड़ी ही देर में वह दरवाजा, जिस पर बड़ा सा ताला लटका था अलीबाबा के दरवाजे की तरह खुल गया और वह साया उस कमरे में जा कर गायब हो गया।
राजू और उस की मंडली को तो जैसे इसी क्षण का इन्तजार था।
साए के अंदर प्रवेश होते ही राजू और उसकी मंडली अपने अपने बिस्तरों से बाहर आ गई। उन्होंने लपक कर बिना आवाज किए उस कमरे की सिटकनी को बाहर से बंद कर दिया और उस पर एक दूसरा ताला जड़ दिया।
और फिर तो पासा पलटते देर नहीं लगी।