बन्दर और मगरमच्छ – विष्णु शर्मा

Monkey in Riverबंदर का कलेजा (बन्दर और मगरमच्छ) पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

एक नदी किनारे हरा-भरा विशाल पेड़ था। उस पर खूब स्वादिष्ट फल उगे रहते। उसी पेड़ पर एक बंदर रहता था। बडा मस्त कलंदर। जी भरकर फल खाता, डालियों पर झूलता और कूदता-फांदता रहता। उस बंदर के जीवन में एक ही कमी थी कि उसका अपना कोई नहीं था। मां-बाप के बारे में उसे कुछ याद नहीं था न उसके कोई भाई था और न कोई बहन, जिनके साथ वह खेलता। उस क्षेत्र में कोई और बंदर भी नहीं था जिससे वह दोस्ती गांठ पाता। एक दिन वह एक डाल पर बैठा नदी का नज़ारा देख रहा था कि उसे एक लंबा विशाल जीव उसी पेड़ की ओर तैरकर आता नजर आया। बंदर ने ऐसा जीव पहले कभी नहीं देखा था। उसने उस विचित्र जीव से पूछा ‘अरे भाई, तुम क्या चीज़ हो?’

विशाल जीव ने उत्तर दिया ‘मैं एक मगरमच्छ हूं। नदी में इस वर्ष मछलियों का अकाल पड गया हैं। बस, भोजन की तलाश में घूमता-घूमता इधर आ निकला हूं।’

बंदर दिल का अच्छा था। उसने सोचा कि पेड़ पर इतने फल हैं, इस बेचारे को भी उनका स्वाद चखना चाहिए। उसने एक फल तोडकर मगर की ओर फेंका। मगर ने फल खाया बहुत रसीला और स्वादिष्ट वह फटाफट फल खा गया और आशा से फिर बंदर की ओर देखने लगा।

बंदर ने मुस्कराकर और फल फेकें। मगर सारे फल खा गया और अंत में उसने संतोष-भरी डकार ली और पेट थपथपाकर बोला ‘धन्यवाद, बंदर भाई। खूब छक गया, अब चलता हूं।’ बंदर ने उसे दूसरे दिन भी आने का न्यौता दे दिया।

मगर दूसरे दिन आया। बंदर ने उसे फिर फल खिलाए। इसी प्रकार बंदर और मगर में दोस्ती जमने लगी। मगर रोज आता दोनों फल खाते-खिलाते, गपशप मारते। बंदर तो वैसे भी अकेला रहता था। उसे मगर से दोस्ती करके बहुत प्रसन्नता हुई। उसका अकेलापन दूर हुआ। एक साथी मिला। दो मिलकर मौज-मस्ती करें तो दुगना आनन्द आता है। एक दिन बातों-बातों में पता लगा कि मगर का घर नदी के दूसरे तट पर है, जहां उसकी पत्नी भी रहती हैं। यह जानते ही बंदर ने उलाहन दिया ‘मगर भाई, तुमने इतने दिन मुझे भाभीजी के बारे में नहीं बताया मैं अपनी भाभीजी के लिए रसीले फल देता। तुम भी अजीब निकट्टू हो अपना पेट भरते रहे और मेरी भाभी के लिए कभी फल लेकर नहीं गए।

उस शाम बंदर ने मगर को जाते समय ढेर सारे फल चुन-चुनकर दिए। अपने घर पहुंचकर मगरमच्छ ने वह फल अपनी पत्नी मगरमच्छनी को दिए। मगरमच्छनी ने वह स्वाद भरे फल खाए और बहुत संतुष्ट हुई। मगर ने उसे अपने मित्र के बारे में बताया। पत्नी को विश्वास न हुआ। वह बोली ‘जाओ, मुझे बना रहे हो। बंदर की कभी किसी मगर से दोस्ती हुई हैं?’

मगर ने यकीन दिलाया ‘यकीन करो भाग्यवान! वर्ना सोचो यह फल मुझे कहां से मिले? मैं तो पेड़ पर चढने से रहा।’

मगरनी को यकीन करना पडा। उस दिन के बाद मगरनी को रोज बंदर द्वारा भेजे फल खाने को मिलने लगे। उसे फल खाने को मिलते यह तो ठीक था, पर मगर का बंदर से दोस्ती के चक्कर में दिन भर दूर रहना उसे खलना लगा। ख़ाली बैठे-बैठे ऊंच-नीच सोचने लगी।

वह स्वभाव से दुष्टा थी। एक दिन उसका दिल मचल उठा ‘जो बंदर इतने रसीले फल खाता हैं, उसका कलेजा कितना स्वादिष्ट होगा?’ अब वह चालें सोचने लगी। एक दिन मगर शाम को घर आया तो उसने मगरनी को कराहते पाया। पूछने पर मगरनी बोली ‘मुझे एक खतरनाक बीमारी हो गई है। वैद्यजी ने कहा हैं कि यह केवल बंदर का कलेजा खाने से ही ठीक होगी। तुम अपने उस मित्र बंदर का कलेजा ला दो।’

मगर सन्न रह गया। वह अपने मित्र को कैसे मार सकता हैं? न-न, यह नहीं हो सकता। मगर को इनकार में सिर हिलाते देखकर मगरनी ज़ोर से हाय-हाय करने लगी ‘तो फिर मैं मर जाऊंगी। तुम्हारी बला से और मेरे पेट में तुम्हारे बच्चे हैं। वे भी मरेंगे। हम सब मर जाएंगे। तुम अपने बंदर दोस्त के साथ खूब फल खाते रहना। हाय रे, मर गई… मैं मर गई।’

पत्नी की बात सुनकर मगर सिहर उठा। बीवी-बच्चों के मोह ने उसकी अक़्ल पर पर्दा डाल दिया। वह अपने दोस्त से विश्वासघात करने, उसकी जान लेने चल पडा।

मगरमच्छ को सुबह-सुबह आते देखकर बंदर चकित हुआ। कारण पूछने पर मगर बोला ‘बंदर भाई, तुम्हारी भाभी बहुत नाराज़ हैं। कह रही हैं कि देवरजी रोज मेरे लिए रसीले फल भेजते हैं, पर कभी दर्शन नहीं दिए। सेवा का मौक़ा नहीं दिया। आज तुम न आए तो देवर-भाभी का रिश्ता खत्म। तुम्हारी भाभी ने मुझे भी सुबह ही भगा दिया। अगर तुम्हें साथ न ले जा पाया तो वह मुझे भी घर में नहीं घुसने देगी।’

बंदर खुश भी हुआ और चकराया भी ‘मगर मैं आऊं कैसे? मित्र, तुम तो जानते हो कि मुझे तैरना नहीं आता।’ मगर बोला ‘उसकी चिन्ता मत करो, मेरी पीठ पर बैठो। मैं ले चलूंगा न तुम्हें।’

बंदर मगर की पीठ पर बैठ गया। कुछ दूर नदी में जाने पर ही मगर पानी के अंदर गोता लगाने लगा। बंदर चिल्लाया ‘यह क्या कर रहे हो? मैं डूब जाऊंगा।’

मगर हंसा ‘तुम्हें तो मरना है ही।’

उसकी बात सुनकर बंदर का माथा ठनका, उसने पूछा ‘क्या मतलब?’

मगर ने बंदर को कलेजे वाली सारी बात बता दी। बंदर हक्का-बक्का रह गया। उसे अपने मित्र से ऐसी बेइमानी की आशा नहीं थी।

बंदर चतुर था। तुरंत अपने आप को संभालकर बोला ‘वाह, तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? मैं अपनी भाभी के लिए एक तो क्या सौ कलेजे दे दूं। पर बात यह हैं कि मैं अपना कलेजा पेड़ पर ही छोड आया हूं। तुमने पहले ही सारी बात मुझे न बताकर बहुत ग़लती कर दी है। अब जल्दी से वापिस चलो ताकि हम पेड़ पर से कलेजा लेते चलें। देर हो गई तो भाभी मर जाएगी। फिर मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।’

अक़्ल का मोटा मगरमच्छ उसकी बात सच मानकर बंदर को लेकर वापस लौट चला। जैसे ही वे पेड़ के पास पहुंचे, बंदर लपककर पेड़ की डाली पर चढ गया और बोला ‘मूर्ख, कभी कोई अपना कलेजा बाहर छोडता हैं? दूसरे का कलेजा लेने के लिए अपनी खोपडी में भी भेजा होना चाहिए। अब जा और अपनी दुष्ट बीवी के साथ बैठकर अपने कर्मों को रो।’ ऐसा कहकर बंदर तो पेड़ की टहनियों में लुप्त हो गया और अक़्ल का दुश्मन मगरमच्छ अपना माथा पीटता हुआ लौट गया।

सीख —

  1. दूसरों को धोखा देने वाला स्वयं धोखा खा जाता है।
  2. संकट के समय बुद्धि से काम लेना चाहिए।

∼ आचार्य विष्णु शर्मा

About Vishnu Sharma

Vishnu Sharma (विष्णु शर्मा) was an Indian scholar and author who is believed to have written the Panchatantra collection of fables. The exact period of the composition of the Panchatantra is uncertain, and estimates vary from 1200 BCE to 300 CE. Some scholars place him in the 3rd century BCE. Vishnu Sharma is one of the most widely translated non-religious authors in history. The Panchatantra was translated into Middle Persian/Pahlavi in 570 CE by Borzūya and into Arabic in 750 CE by Persian scholar Abdullah Ibn al-Muqaffa as Kalīlah wa Dimnah . In Baghdad, the translation commissioned by Al-Mansur, the second Abbasid Caliph, is claimed to have become “second only to the Qu’ran in popularity.” “As early as the eleventh century this work reached Europe, and before 1600 it existed in Greek, Latin, Spanish, Italian, German, English, Old Slavonic, Czech, and perhaps other Slavonic languages. Its range has extended from Java to Iceland.” In France, “at least eleven Panchatantra tales are included in the work of La Fontaine.”

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