रात भर दिल्ली की विधान सभा की गर्मा-गर्म बहस की तरह हम पति-पत्नी सो नहीं सके, मगर अगले दिन दिल्ली घूमने का बिल पास हो गया और मैं हारे हुए नेता की तरह बीवी के सामने पूर्णरूप से समर्पित था, मेरी बीवी सत्ता पक्ष की तरह मुझ पर आरोप भी लगा रही थी। बीवी के आरोप उचित और न्यायसंगत थे क्योंकि बीवी के व्यंग्यबाण मेरे वक्ष की धरातल पर पूरी तरह से पैठ कर अपना स्थान बना पाने में भी सक्षम थे।
बीवी ने डंकनी-लंकनी की तरह मुंह फाड़ कर मुझ पर आरोप लगाने शुरू कर दिए, तुम मुझे दिल्ली आने को मना कर रहे थे, जब एक औरत दिल्ली की मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो मैं दिल्ली में क्यों नहीं रह सकती? दिल्ली विधान सभा की उपाध्यक्षा भी तो एक औरत रही है? कांग्रेस की तो अध्यक्षा भी औरत है फिर मुझे दिल्ली कौन-सा करंट मार रही है, मैं दिल्ली में नहीं रह सकती? कान खोल कर सुन लो! संसद में दस्यु सुन्दरी फूलन देवी आ सकती है तो आप मुझे दिल्ली में सुन्दरी फूलन देवी आ सकती है तो आप मुझे दिल्ली में आने को मना नहीं कर सकते समझे! मैं दिल्ली आई हूं, दिल्ली देखकर रहूंगी।
मैं अपनी प्रिय पतनी अर्थात जांनशीन बीवी को दिल्ली घुमाने ले जाने लगा। कमरे से निकल कर सड़क पर आ गए। बीएस स्टाप पर लगभग डेढ़ घंटा खड़ा रहने के बाद एक बस मिली ठसाठस, मैं अपनी बीवी के साथ बस में बढ़ती महंगाई की तरह से जा चढ़ा। बस में चढ़ते ही बीवी चम्बल के डाकू की तरह चिंघाड़ पड़ी, लानत है सरकार पर, औरतों का पक्ष तो सरकार लेती है, संसद में तीस प्रतिशत औरतों के आरक्षण का शोर तो मचता है मगर बस में औरतों की सुरक्षित सीटों पर मर्द जमें पड़े हैं, बसों में औरतों की सीटों का आरक्षण पचास प्रतिशत होना चाहिए।
यह बात कान खोल कर मैंने सुनी, और अंगद के पैर जमाने तक मैं रावण की तरह चुपचाप बस में खड़ा बीवी का मुंह देखता रहा और बस का टायर फट गया। जैसे तैसे सरकारी धक्के खाते हुए हम दोनों जा पहुंचे लाल किले। वहां पहुंचकर समस्या बस से बड़ी हो गई, क्योंकि मेरे बीवी को जन-सुविधाओं की आवश्यकता महसूस हुई, मर्दों के लिए तो यह सुविधा दिल्ली के अनेक फुटपाथों पर मिल जाती है, मगर महिलाओं के लिए शायद सरकार का कभी इस ओर ध्यान ही नहीं गया होगा। लघुशंका से बीवी का चमकदार चेहरा और चमक गया और दोष मुझ पर दिया जाने लगा, जैसे दिल्ली को मैंने ही बसाया हो या दिल्ली मुझे मेरे बाप-दादा ने दान में दे दी हो। बीवी को इस का शक था कि जैसे दिल्ली की व्यवस्था का भार मुझ पर है और सारे कानून मैंने ही बनाए हैं।
मैं अपनी बीवी को समझाने की कोशिश कर रहा था, मगर व्यर्थ, जनसुविधा के नाम पर मैंने लाल किला में खड़ी अनेक वीरान झाड़ियां बीवी को दिखाई मगर बीवी टस से मस नहीं हुई। बीवी की लघुशंका मेरे जीवन की विकट शंका और समस्या बन गई। अन्त में, बीवी ने सारी लाज शर्म लाल किले की खूंटी पर टांगकर अपनी लघुशंका का निवारण लाल किले की दीवार के पास किया, तभी जोरदार धमाका हुआ, और वह दिवार चटक कर नीचे धसनी शुरू हो गई। तभी बीवी चीखती हुई बोली, शाहजहां ने अपनी बीवी की याद में ताजमहल तो बनवा दिया मगर दिल्ली के लाल किला में पता नहीं क्यों औरतों के लिए जनसुविधाएं बनवाना भूल गया? तब से अब तक भारत सरकार का ध्यान भी इस ओर नहीं गया? जबकि देश में लगभग अठारह साल एक औरत ने राज्य किया, फिर भी महिलाओं के साथ पक्षपात? मैं दिल्ली की ईंट-से-ईंट बजा कर रख दूंगी।
बीवी को समझाते हुए मैंने कहां- अरी भाग्यवान! मैं दिल्ली नौकरी करने हूं और तुम दिल्ली घूमने! हमें सरकार से या दिल्ली से क्या लेना देना, तुम दिल्ली की ईंट-से-ईंट बना दोगी तो मेरी नौकरी को खतरा पैदा हो जाएगा। मेरी बात सुनकर मेरी बीवी मुझे ही समझने लगी। पता नहीं कैसे दिल्ली में औरतें गुजारा कर लेती हैं, दिल्ली में औरत के मुख्यमंत्री होते हुए भी दिल्ली में औरतों के लिए न तो बसों में बैठने को सीट ही मिलती है और ना ही औरतों के लिए जनसुविधाओं ही हैं। मैं तो कहती हूं, आग लगे दिल्ली को, तुम चलो मेरे साथ वापिस गांव, हम गांव में ही रह कर गुजारा कर लेंगे।
मैंने बीवी को समझाया-अरी मेरी प्राण प्रिय, डार्लिंग! अभी तो कुतुब मीनार, जन्तर-मन्तर, लोटस टैम्पल, स्वामी मलाई मन्दिर छत्तरपुर मन्दिर, मोरी गेट, दिल्ली गेट, इंडिया गेट, कनाट प्लेस, मुगल गार्डन, बुद्धा गार्डन, लोधी गार्डन, संसद भवन, टी.वी स्टेशन, तिस हजारी, पुराना सचिवालय आदि कई जगह तो देखनी-घूमनी बाकी हैं।
तुम तो अभी से तक गई, हैरान हो गई, परेशान हो गई, रही जन सुविधाओं की बात तो भला इतनी बड़ी दिल्ली में सुख सुविधा तो केवल धक्के-ही-धक्के हैं। मेरे मुंह से इतनी बात सुनते ही बीवी तनतनाती हुई ताड़का की तरह चिल्लाई-भाड़ में गई तुम्हारी दिल्ली, चूल्हे में गया सारा घूमना, भाड़ में गए सरे नेता, मुझे तो अपना गांव ही दिल्ली से सौ गुना अच्छा लगता है, वहां न तो धक्के हैं, न कोई प्रदषूण की समस्या, रही जन-सुविधाओं की बात, किसी भी खेत में चले जाओ, सारा काम निपट जाता है, दिल्ली तो बस…।
अरे! मेरे बच्चों के इकलौते पिता, मेरे साथ सीधे गांव चलो, देख लिया दिल्ली को, मुझे याद आ रहा है गांव, गांव है, जहां प्रेम है, प्यार है, महानगर में धक्के हैं, लूट है, बेईमानी है, झूठी चमक है, इस दिल्ली में, चलो मेरे साथ गांव में, समझे, वरना…।