चाचा जी की होली: होली के त्योहार पर नटखट बाल-कहानी

चाचा जी की होली: होली पर नटखट बाल-कहानी

चाचा जी की होली: होली के त्योहार पर नटखट बाल-कहानी

शांतनु की शैतानी के किस्से पूरे मोहल्ले में मशहूर थे। अगर किसी के घर की खिड़की का काँच टूटा हो तो देखने वाले को तुरंत समझ में आ जाता था कि बॉल ज़रूर शांतनु की होगी। अगर किसी के घर की कोई डोरबेल बजा कर भाग जाता था तो भी पता चल जाता था कि यह काम शांतनु का ही होगा।

शांतनु की मम्मी उसे पर समझा समझा कर परेशान हो चुकी थी पर वह थोड़ी देर के लिए तो उनकी बात मानता और उसके बाद फिर वैसे ही हो जाता। इसलिए होली आने के साल भर पहले से मम्मी उसे कई बार समझा चुकी थी कि होली पर कोई शैतानी मत करना।

चाचा जी की होली: डॉ. मंजरी शुक्ला की होली स्पेशल बाल-कहानी

“हाँ, हाँ, बिल्कुल नहीं करूंगा और वैसे भी मैं कोई शैतानी नहीं करता हूँ। आप बिना कारण ही मुझे डाँटती रहती हैं” शांतनु ने गुलाब जामुन मुँह में डालते हुए कहा।

मम्मी ने शांतनु को गौर से देखते हुए कहा – “मैं फ़िर कह रही हूँ कि शैतानी मत करना वरना तुम्हें हॉस्टल में डाल दूँगी”।

शांतनु यह सुनकर खिलखिलाकर हॅंस पड़ा क्योंकि वह जानता था कि मम्मी उसे इतना प्यार करती है कि वह उसे हॉस्टल में कभी नहीं डालेंगी”।

वह हँसते हुए मम्मी के गले लग गया। मम्मी मुस्कुरा दी और शांतनु के गाल पर प्यार से चपत लगा दी।

शांतनु बोला – “मैं बस थोड़ी देर में अपने दोस्तों के साथ खेलकर आता हूँ”।

मम्मी कुछ कहती इससे पहले ही शांतनु भाग गया। शायद कोई नई शैतानी करने के लिए…

होली के दिन पहले शांतनु बहुत खुश था।

घर में चारों तरफ़ से गुजिया और दही-बड़े बनने की सुगंध आ रही थी। मम्मी ने समोसे भी बनाए थे जो शांतनु मना करने की बाद भी चटखारे लेकर, एक के बाद एक करके पूरे पाँच खा चुका था।

उसने हँसते हुए अपने पेट पर हाथ फेरा और बोला – “आख़िर होली ही तो होती है, जिसमें मैं, जी भर के… मेरा मतलब है कि जितने चाहे उतने गुजिया और समोसे खा सकता हूँ”।

मम्मी बोली – “अब बस करो, वरना शाम को डॉक्टर की यहाँ जाना पड़ेगा”।

डॉक्टर का नाम सुनते ही शांतनु ने हाथ का समोसा तुरंत प्लेट में वापस रख दिया।

मम्मी को घर साफ़ करता देख उसने मम्मी से पूछा “आज आप घर को इतना साफ़ क्यों कर रही हो”?

“क्योंकि आज पहली बार तुम्हारे पापा के चाचा जी आ रहे हैं। उन्हें तो हमने मना भी किया था कि होली के एक दिन पहले नहीं आएँ, पर वह माने ही नहीं जबकि रंगों से उन्हें बहुत डर लगता है”।

“अरे वाह, पापा के चाचाजी! कहाँ से आ रहे हैं?”

“गाँव से आ रहे हैं। वह कभी शहर नहीं आते हैं पर इस बार तेरे पापा का बर्थडे होली के दिन ही पड़ रहा है” मम्मी ने सोफ़े का कवर ठीक करते हुए कहा।

“पर पापा का बर्थडे तो 27 तारीख को होता है।”

“हाँ, पर तिथि के हिसाब से आज ही पड़ रहा है।”

शांतनु को आधी बात समझ में आई और आधी नहीं आई पर वह ये सुनकर बहुत खुश हुआ कि उसे चाचा जी को रंग लगाने का मौका मिलेगा। उसके दिमाग में तुरंत शैतानी के कारनामे कुलबुलाने लगे थे।

थोड़ी देर बाद ही हर कमरे में चिड़िया के चहचहाने की आवाज़ से दरवाजे की घंटी बजी। मम्मी जब तक दरवाज़े की तरफ़ जाती तब तक तो शांतनु उछलता कूदता हुआ दरवाज़ा खोल भी चुका था।

सामने ही सफ़ेद धोती और कुरता पहने एक आदमी खड़ा हुआ था। मम्मी ने उन्हें देखते ही उनके पैर छू लिए और शांतनु से कहा – “चाचा जी के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लो”।

शांतनु को चाचा जी की वेशभूषा देखकर बड़ा मजा आया।

उसने पैर छूते ही कहा – “अब मैं भी धोती और कुर्ता पहनूंगा”।

“हे भगवान, अब मेरे लिए एक नई आफ़त तैयार हो गई” मम्मी ने मन ही मन सोचा।

चाचा जी मुस्कुराते हुए अंदर आए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले – “कितना भोला भाला और संस्कारी बच्चा है, भले ही शहर में रहता है पर अपने गाँव को नहीं भूला”।

मम्मी ने यह देख कर चैन की साँस ली। शांतनु के गोलमटोल और प्यारे से चेहरे को देखकर भले ही चाचा को गलतफहमी हो गई थी पर चलो दो दिन यही सही।

तभी शांतनु बोला – “चाचा जी मैं तो आपको बहुत सारा रंग लगाऊंगा”।

“नहीं… नहीं मैं रंग नहीं लगवाउँगा” कहते हुए चाचा जी बच्चों की तरह डर गए।

“क्यों, क्यों नहीं लगवाएंगे”?

“वो…वो …क्या है ना कि मुझे सर्दी हो जाती है।”

“कोई बात नहीं मैं आपको सूखा रंग लगा दूंगा।”

“नहीं, नहीं मुझे रंग मत लगाना। रंग लगने के बाद मुझे दिखाई देना बंद हो जाता है।”

“आप तो एक के बाद एक बहाने बनाते जा रहे हो” शांतनु ठहाका मारकर हँसता हुआ बोला।

मम्मी ने शांतनु को गुस्से से देखा और कहा – “जाओ, जाकर अपना कमरा साफ़ करो”।

“होली तो सब ही खेलते हैं पर जो रंगों से डरे उसे ही रंगने में असली मज़ा है” शांतनु बुदबुदाया और छत पर जाकर बैठ गया।

अगले ही दिन होली थी।

चाचा जी सफ़ेद धोती कुर्ते में सोफ़े पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। शांतनु जानता था कि अगर उसने सोफ़े पर रंग डाला तो मम्मी उसे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगी।

इसलिए उसने चाचा जी से मिमियाते हुए कहा – “मेरे प्यार के लिए, थोड़ा सा तो रंग लगवा लीजिए”।

“नहीं, मैं किसी कीमत पर नहीं लगवाउँगा” कहते हुए चाचा जी ने अखबार में मुँह छिपा लिया।

मम्मी बोली – “जब वह नहीं लगवाना चाहते तो तुम अपने दोस्तों को लगाओ और यहाँ से जाओ”।

पर चाचा जी का रंग तो अब इज़्ज़त का प्रश्न बन चुका था। पूरे शहर में चाहे किसी को रंग लगे या ना लगे पर चाचा जी को रंगना बहुत ज़रूरी हो गया था।

दिन भर में कई दफ़ा शांतनु घर के अंदर आया, बाहर गया, छत पर गया, इधर गया, उधर गया पर चाचाजी को रंग नहीं लगा पाया।

शाम होने लगी थी। अधिकतर सब लोग होली खेल चुके थे और नहा धो रहे थे।

पर चाचा जी मूर्ति की तरह सोफ़े पर बैठे हुए थे।

चाचा जी की होली – Story Continues…

शांतनु ने कुढ़ते हुए कहा – “चाचा जी, आप सोफ़े पर चिपक गए हो क्या”?

चाचा जी हँसते हुए बोले – “चाहे कुछ भी कह लो मैं यहां से नहीं हिलूंगा और अगर तुम मुझ पर रंग डालोगे तो सोफ़ा गीला होगा और फ़िर तेरी मम्मी की कुटाई याद है ना”?

“हे भगवान, मेरी इज़्ज़त का फालूदा करने में मम्मी कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। गाँव तक फ़ोन करके बता देती हैं कि उन्होंने पिछली होली पर सोफ़ा गीला करने पर पिचकारी से ही धुनाई कर दी थी।

“अब तो मुझे चाचाजी को रंग लगाना ही पड़ेगा वरना उस शर्त का क्या होगा जो मैंने अपने दोस्तों से लगाई है” सोचते हुए शांतनु इधर-उधर देखने लगा।

तब तक पापा भी आकर कुर्सी पर बैठ गए थे और चाचा जी से बातें करने लगे थे। मम्मी भी चाय लेकर आ गई थी।

एक छोटी प्लेट में गुजिया रखी थी तो दूसरे में समोसा। शांतनु ने जैसे ही समोसा मुँह में डाला, उसकी नजर तुरंत एक कटोरी पर पड़ी जिसमें हरा वाला सूखा रंग रखा था। वह जानता था कि पानी में मिलने के बाद वह लाल रंग का हो जाता है।

शांतनु की आँखें ख़ुशी से चमक उठी। उसने सोचा – “रंग तो सूखा है, चलो कोई बात नहीं चाचा जी को लगा देता हूँ। अभी जब नहाने के लिए उठेंगे तो पानी पड़ते ही रंग में सराबोर हो जाएंगे। यह सोचते ही शांतनु के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई और उसने तुरंत मुट्ठी में रंग लिया और सोफ़े पर खड़ा होकर चाचा जी के सिर और गाल में मसलने लगा।

जब तक मम्मी और पापा उसे पकड़ पाते वह सिर पर पैर रखकर अपने कमरे में भाग गया।

“बचा लो…बचा लो…” कहते हुए चाचाजी बच्चों की तरह चीख रहे थे।

थोड़ी देर बाद ही शांतनु के दरवाज़े पर चाचाजी खड़े हुए उसे बाहर बुला रहे थे।

“अब तो मैं कल ही बाहर आऊंगा” शांतनु कमरे के अंदर से ही बोला।

“अरे, तो क्या होली के दिन भूखे रहोगे” चाचाजी ने चिल्लाकर पूछा।

“कल तक का खाना मैंने लाकर रख लिया है”।

“अरे, मैं रंग लगवाने के लिए आया हूँ” चाचाजी बोले।

कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला और शांतनु डरते हुए बाहर आया।

उसने देखा कि चाचाजी के पूरे चेहरे पर सफ़ेद रंग की बिंदियां लगी हुई हैं।

“ये क्या हाल बनाया हुआ हैं, इतनी बिंदियां” शांतनु ने आश्चर्य से पूछा?

“बिंदियां नहीं, दवाई है, क्योंकि तुझ मूर्ख ने सूखा रंग समझकर चाचाजी के चेहरे पर कलोंजी रगड़ दी थी जिससे उनका पूरा चेहरा छिल गया है” मम्मी ने गुस्से से कहा।

शांतनु ने घबराते हुए चाचाजी की तरफ देखा तो चाचाजी ने हँसते हुए उसके चेहरे पर गुलाल लगा दिया और कहा – “ज़िंदगी में पहली बार होली खेली, वो भी कलौंजी की…”

कमरे में हँसी का ठहाका गूँज उठा और सबसे ज़ोरों की आवाज़ चाचाजी की ही आ रही थी।

और अब चाचाजी होली खेलने से कभी मना नहीं करते हैं। उन्हें डर हैं कि अब पता नहीं कौन सा मसाला उनके ऊपर ना डाल दिया जाए।

~ ‘चाचा जी की होली’ by डॉ. मंजरी शुक्ला

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