मैंने कहना चाहा – “तुम्हारे नहीं सुगंधा हमारे… अब से वो तुम्हारा घर भी तो है। पर चाभी और बैग हाथ में उठाकर सिर्फ़ इतना ही कह सका -“चलो”
जो कॉलेज रोज ना जाने कितना दूर लगता था, उसके दूरी मानों आज सिमट गई थी।
ऐसा लगा जैसे कॉलेज का दरवाजा खोलते ही घर का दरवाजा आ गया। अपने किसी प्रिय का साथ क्या सचमुच हर दूरी को इतना ही छोटा बना देता है। प्रिय शब्द को सोचता हुआ मैं मुस्कुराया जैसे ही घर पहुंचा मां दरवाजे पर ही खड़ी होकर हमारी बाट जो रही थी। हमें देख कर खुशी से ऐसे चीख पड़ी जैसे हम दोनों ब्याह के बाद पहली बार उनका आशीर्वाद लेने आए हो। मां के प्रति मेरे मन में सम्मान और प्रेम के भाव एक बार फिर उठ गए।
तभी माँ हड़बड़ाई सी बोली -“अरे, वहीँ बाहर धूप में ही खड़े रहोगे या अंदर भी आओगे?”
ये सुनकर सुगंधा थोड़ा सा मेरे पीछे हो गई मुझे लगा कि मां को यह बात पसंद नहीं आएगी माँ मुस्कुरा दी, शायद उसे सुगंधा का दौड़ते हुए घर में आना पसंद ना आता।
जब हम दोनों घर पहुंचे तो मां बोली “बैठो मैं तुम लोगों के लिए चाय लाती हूं।”
“रहने दीजिए आंटी” सुगंधा ने सकुचाते हुए धीरे से कहा।
“क्यों रहने दूँ, पहली बार आई हो तुम यहां” – माँ मनुहार करते हुए बोली।
तभी जैसे अचानक उन्हें जैसी कुछ याद आया और वो सुगंधा के पास जाकर बड़े प्यार से बोली – ” तुम्हें तो पता ही है, मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है, पागलों की तरह प्यार करता है तुम्हें मेरा बेटा और उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है।”
“पर आंटी, आपने तो मुझे अभी देखा भी नहीं है”।
मां की आँखें सब देख लेती है, जानती हूं चांद का टुकड़ा नहीं बल्कि पूरा का पूरा चांद है तू।
चल अब जल्दी से यह बुरका हटा।
मां के इतना कहने पर मैं भी एकटक सुगंधा की तरफ़ टकटकी लगाए देखने लगा आखिर मैंने भी तो उसे आज तक नहीं देखा था।
सपनों की राजकुमारी को देखने की आस लिए मैंने यह पांच साल कैसे काटे थे मैं ही जानता था।
सुगंधा ने धीरे से अपना बुर्का उठा दिया मैं उसे देखकर जैसे सुन्न हो गया और माँ तो ज़मीन पर धम्म से बैठ गई।
सुगंधा का दायाँ गाल बुरी तरह से जला हुआ था। कमरे में ऐसे सन्नाटा छाया हुआ था जैसे किसी की मौत हो गई हो।
सुगंधा बोली – “मैं जानती थी कि मेरा चेहरा देखने के बाद ऐसा ही होगा इसलिए इन से बेइंतहा प्यार करने के बाद भी मैं आज तक कोई हामी नहीं भरी। ज़मीन जायदाद की दुश्मनी को लेकर कुछ लोगों ने मेरे माता पिता को ट्रक से रौंद कर एक्सीडेंट का नाम दे दिया और मेरे मुहँ पर एसिड फेंक दिया तबसे मैं अकेली ही रहकर कानून की पढाई कर रही हूँ ताकि अपने माता-पिता को न्याय दिलवा सकूं। पल भर रुकने के बाद वो बोली – “अब मैं चलती हूँ।”
ना उसकी आँखों में एक भी आँसूं था और ना चेहरे पर कोई दुख की लकीर।
मैं उसकी हिम्मत देखकर दंग था। माँ अभी तक ज़मीन पर पालथी मारे अपना सर पकड़े बैठी थी। उनके पास पहुँचकर सुगंधा ने उन्हें सहारा देकर खड़ा करते हुए कहा – “चलती हूँ आंटी।” और वो तेज कदमों से दरवाजे की तरफ़ चल दी। उसका बाहर जाता हुआ एक-एक कदम जैसे मुझे मौत के मुंह की तरफ धकेल रहा था। मैं कैसे रहूंगा उसके बिना… पर उसका चेहरा…और वो सोचते ही मैंने आंखें बंद कर ली। तभी मां की आवाज सुनाई पड़ी – “रुक जा बेटी”और सुगंधा के बढ़ते कदम वहीं रुक गए। उसने पलट कर मां की ओर देखा।
इस बार उसकी लाल आंखों से आंसू बह रहे थे।
माँ अपने हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाती हुई बोली – “क्या तेरी जगह मेरी बेटी होती तो मैं बिना इलाज कराए उसे ऐसे ही छोड़ देती?”
सुगंधा अपना मुंह ढांप कर वही खड़ी हो गई पर उसकी सिसकियों की आवाज़ पूरे कमरे में सुनाई दे रही थी और मैं… मैं माँ के गले लग हिलक हिलक के रो रहा था।