लौट आओ पापा: पितृ दिवस पर हिंदी बाल-कहानी

लौट आओ पापा: पितृ दिवस पर हिंदी बाल-कहानी

लौट आओ पापा: कहते है जाने वाला कभी लौट कर नहीं आता है, पर इन सभी बातों को झुठलाते हुए, आप लौट आओ पापा।

घर पर आपकी बहुत ज़रूरत है। ज़रूरत तो हम सबको है पर माँ को सबसे ज़्यादा।

कल भैया का फ़ोन आया था। बता रहे थे कि माँ अभी भी देहरी पर बैठी रहती है किसी ना किसी बहाने से…

लौट आओ पापा: पितृ दिवस बाल-कहानी

पर हम सब जानते है कि वह आपका इंतज़ार कर रही है। अपनी आँखों से नहीं देख पाई थी ना आपकी अंतिम विदाई, इसलिए उन्हें यकीन नहीं होता कि आप अब हमारे बीच नहीं रहे।

जब दो हफ़्ते पहले आपके नाती ने उन्हें फोन करके बताया कि उसने अपने पापा के लिए ग्रीटिंग कार्ड बनाया है तो माँ बच्चों की तरह खुश हो गई थी।

मुझसे कहने लगी कि तू भी अपने पापा के लिए एक प्यारा सा कार्ड बना देगी तो वह भी उस दिन घर लौट आएँगे।

उनकी रूंधी हुई आवाज़ सुनकर मोबाइल के साथ ही समय भी जैसे हथेली की, बचपन की लकीरों में ठहर गया था।

मुझे भगवान पर अटूट विश्वास है पर उस दिन मेरा विश्वास थोड़ा सा हिला।

कोई तो करवा चौथ नहीं छूटा उनसे, ना कोई व्रत ना कोई दान तो फ़िर माँ की दिन रात के पूजा-पाठ के बदले ईश्वर ने उन्हें देने के लिए वैध्वय ही क्यों चुना!

काजल भरी आँखें यूँ सूनी हो गई जैसे बरसों से कोई सपना ही ना देखा हो। पता है पापा, माँ कभी रोती है तो कभी हँसती ही चली जाती है।

कहती है, आप खाना बनाते वक़्त तो दिखते हो और जब वह थाली परोस कर बैठती है तब गायब हो जाते हो।

लेकिन पास पड़ोस के कुछ शैतान बच्चों को मनोरंजन का साधन मिल गया है।

दरवाज़े पर आकर चिल्लाते है – “अम्माँ, देखो बाबूजी आ गए”।

और माँ ये सुनते ही नंगे पैर दौड़ जाती है। भैया बता रहे थे कि तीन दिन पहले वह हीरा हलवाई के सामने वाले चौराहे पर बैठे हुए मिली थी।

बरगद के पेड़ के नीचे अच्छा खासा जमावड़ा इकठ्ठा हो गया था। पर माँ को इन सब बातों से कोई सराकोर नहीं था। वह तो बड़ी तल्लीनता के साथ आसपास खड़े लोगो को आपके किस्से सुना रही थी। कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे और कुछ सहानुभूति से देख कर उन्हें वापस घर जाने के लिए कह रहे थे।

जानते हो पापा, माँ को बचपन से लेकर मेरे ब्याह तक की सारी बातें याद है पर सिर्फ़ वो बातें जिनमें आप मौजूद हो।

याद है जब बचपन में एक बार मैं, माँ और आपके साथ मेला घूमने गई थी। तब आपने माँ को ढेर सारी लाल रंग की काँच की चूड़ियाँ दिलवाई थी, जिन पर चूड़ियों पर सुनहरे रंग की चमकीली किरकिरी लगी हुई थी। माँ के गोरा चेहरा चूड़ियों के लाल रंग की रक्तिम आभा से दमदमा उठा था।

और माँ ने उन चूड़ियों को सारी उम्र ऐसे सहेज कर रखा मानों वो सोने की चूड़ियाँ हो।

पर आपके नहीं रहने पर जब एक दिन माँ वो चूड़ियाँ पहनकर आँगन में बैठी थी तो पड़ोस वाली काकी की नज़र छत से माँ के ऊपर पड़ गई।

मोहल्ले भर में काकी का आतंक तो आपसे भी छुपा हुआ नहीं है, सब जानते है कि काकी ने अपने जीवन का एक भी क्षण व्यर्थ जाया नहीं किया था। उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि वह सामने वाले को खून के आँसूं रुला सके और उन्होंने पूरी मुस्तैदी से इसे अंतिम समय तक निभाया।

काकी ने जैसे ही माँ को चूड़ियों के साथ मुस्कुराते हुए देखा तो वह छत से ही चिल्लाई – “लाल चूड़ियाँ… घोर कलजुग आ गया”।

काकी की आवाज़ सुनते ही माँ ने सहम कर दोनों हाथ साड़ी के पल्लू के अंदर छुपा लिए।

भैया बता रहे थे कि काकी का बस चलता तो सीधे छत से ही कूद जाती पर ना जाने क्या सोचकर वह धड़धड़ाती हुई सीढ़ियों से उतरी और कुछ ही देर बाद वह अपने साथ साथ मोहल्ले भर की ना जाने कितनी औरतों को लेकर आ गई। दुनियाँ भर की ना जाने कितनी बातें माँ को सुनाते हुए वह माँ से जोर जबरदस्ती करते हुए चूड़ियाँ उतारने लगी।

भैया माँ को छुड़ाने आगे बढ़े तो काकी ने अपनी छोटी छोटी भूरी आँखों से उन्हें घूरा और उन्हें पीछे धकेलते हुए कहा – “कुछ तो शर्म करो बबुआ”।

अपमान और दुःख से भैया के आँसूं छलक उठे और वह मूक बने वापस कमरे में चले गए।

बाद में भैया ने ही बताया था कि जब माँ किसी भी तरह चूड़ियाँ उतरवाने को राज़ी नहीं हुई तो दो औरतों ने उनके हाथ पकड़े और एक ने पत्थर से तोड़ कर चूड़ियाँ तोड़ी।

जो औरतें चूड़ियों का लाल रंग नहीं बर्दाश्त कर पा रही थी, वे मेरी रोती बिलखती माँ की सूनी कलाई पर लगे काँच के टुकड़ों से रिसते खून को देखकर संतुष्ट थी, उस खून को देखकर, जिसका रंग भी लाल था।

वे टुकड़े माँ की कलाई से तो निकल गए पर मेरे दिल में आकर नश्तर की तरह चुभ रहे है। अब मैं जिधर देखती हूँ मुझे काँच के टुकड़े ही नज़र आते है।

भैया बताते है कि उस दिन के बाद माँ ने अपने हाथों में कुछ नहीं पहना।

अब माँ की कलाई सूनी है। उनकी आँसुओं से भरी आँखें सूनी है जो देहरी पर बैठी आपकी बाट जोह रही है और वो सड़के भी सूनी है जहाँ आप और माँ हँसते मुस्कुराते घूमते थे।

माँ को जीवन भर आपने खुश रखा पर आपके जाने के बाद ये लोग उन्हें खुश नहीं रहने दे रहे।

मैं जानती हूँ कि ये चिट्ठी आप तक कभी नहीं पहुँचेगी पर मेरी बात तो आप तक पहुँच रही होगी ना पापा। तो आप सिर्फ़ एक बार लौट आओ पापा…

~ ‘लौट आओ पापा’ by डॉ. मंजरी शुक्ला

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