दिवाली के दिए: पखवाड़े बाद दिवाली थी। सारा शहर दीवाली के स्वागत में रोशनी से झिलमिला रहा था। कहीं चीनी मिटटी के बर्तन बिक रहे थे तो कहीं मिठाई की दुकानो से आने वाली मन भावन सुगंध लालायित कर रही थी।
दिवाली के दिए
उसका दिल दुकान में घुसने का कर रहा था और मस्तिष्क तंग जेब के यथार्थ का बोध करवा रहा था। “दिल की छोड़ दिमाग की सुन” उसको किसी बुजुर्ग का दिया मंत्र अच्छी तरह याद था। दिवाली मनाने को जो-जो जरूरी सामान चाहिए उसे याद था। ‘रंग बिरंगे कागज की लेंसे, एक लक्ष्मी की तस्वीर, थोड़ी सी मिठाई और पूजा का सामान।’
किसी दुकान में दाखिल होने से पहले उसने जेब में हाथ डाल कर पचास के नोट को टटोल कर निश्चित कर लिया था की उसकी जेब में नोट है। फिर एक के बाद एक सामान खरीदता रहा सब कुछ बजट में हो गया। सेंतालीश रुपये में सब कुछ ले लिया था उसने। वो प्रश्नचित घर की ओर चल दिया पर अचानक रास्ते में बैठे एक बूढ़े कुम्हार को देख उसे याद आया की वो ‘दिये‘ खरीदना भूल गया।
‘दिये क्या भाव है बाबा’
‘तीन रुपये के छह’।
‘कुछ पैसे दे दो बाबु जी सुबह से कुछ नही खाया…’ एक बच्चे ने हाथ फैलाते हुए अपनी नीरस आंखे उस पर जमा दी।
सिक्के जेब से हाथ में आ चुके थे।
‘कितने दिए दू साहब’
‘…मैं फिर आऊंगा’ कहते हुए उसने दोनों सिक्के बच्चे की हथेली पर धर दिए और बढ़ गया।
जब दिल सच कहता है तो दिमाग की कतई नही सुनता। ‘दिल की कब सुननी चाहिए‘ उसे संस्कारो से मिला था।
बच्चा प्रसन्ता से खिलखिला उठा उसे लगा जैसे एक साथ हजारो दिए जगमगा उठे हो। फिर कोई स्वरचित गीत गुनगुनाते हुए वो अपने घर की राह लिया। वो एक लेखक था। अगले पखवाड़े आने वाली दीवाली दुनिया के लिए थी – लोग घी के दिये जलायेगे। लेखक ने बच्चे को मुस्कान देकर पखवाड़े पहले – आज ही दिवाली का आनंद महसूस कर लिया था।