दोस्त की पहचान: केशव प्रसाद दो महीनों से बहुत परेशान थे। उनके इकलौते बेटे का नाम तो उसकी दादी ने प्रेम कुमार रखा था पर सभी उसे लव कह कर बुलाते थे।
लव 10वीं कक्षा तक तो ठीक था, पर कालेज में दाखिला लेते ही उसके रंग अलग ही नजर आने लगे थे। शाम को घर से निकलना और देर रात तक बाहर रहना उसकी आदत बन गई थी। पूछने पर घर वालों को यह कह कर चुप करा देता कि अमुक दोस्त के घर बैठ कर नोट्स बना रहा था। अब तो लव की मां को भी चिंता सताने लगी थी, जो कभी कहती थी कि ‘मेरा लव कालेज में पढ़ने जाता है, जवान हो रहा है। दोस्तों से नहीं मिलेगा तो क्या हम जैसे बूढ़ों से मिलेगा’।
और अब एक रात लव की मां रो रही थी कि ‘उसे समय रहते न सुधारा गया तो हमारे बुढ़ापे का सहारा कौन बनेगा? लगता है इसकी संगति बिगड़ गई है’।
दोस्त की पहचान: उदय चंद्र लुदरा
तभी केशव प्रसाद के दिमाग में एक बात आई। जब लव कालेज से आया तो वह उसे अपने पास बिठा कर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘लव बेटा, तुम्हारे दोस्त तो सभी अच्छे हैं। यह बताओ कि तुम्हारा सबसे अच्छा दोस्त कौन है’?
पहले तो लव हैरान हुआ कि पापा ने आज यह कैसी बात पूछी? फिर बोला, ‘पापा जी, दोस्त तो कई हैं पर नम्बर वन मेरा दोस्त सक्षम है। वह मुझ पर जान छिड़कता है’।
पापा बोले, ‘ये सब कहने की बातें हैं, कोई किसी पर जान नहीं छिड़कता’।
लव बोला, ‘मेरे दोस्त सक्षम के बारे ऐसा न बोलें। मैं किसी के हाथ संदेश भेज दूं तो वह सिर के बल दौड़ा चला आएगा’।
केशव प्रसाद बोले, ‘मैं नहीं मानता’।
लव तपाक से बोला, ‘अच्छा आप ही बताइए कैसे मानेंगे’?
केशव प्रसाद जी को अपनी योजना पूरी होती दिखाई दे रही थी। वह बोले, ‘आज देर रात हम दोनों उसके घर चल कर कहेंगे कि हम पर कोई मुसीबत आ पड़ी है। हमें आपकी मदद की जरूरत है। देखते हैं क्या कहता है’।
लव, ‘बस, इतनी सी बात। वह उसी समय भागा चला आएगा’।
योजना के अनुसार आधी रात को लगभग साढ़े बारह बजे केशव प्रसाद और लव, सक्षम के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया पर कोई आवाज नहीं आई। लव ने दोबारा डोर बैल बजाई तो सक्षम की माता ने दरवाजा खोला।
लव ने उन्हें नमस्ते को और कहा, ‘आंटी सक्षम को बुला दीजिए’।
अंदर से सक्षम की आवाज आई, ‘मां उसे कह दो मैं घर पर नहीं हूं’।
लव ने और उसके पापा ने भी सक्षम की आवाज सुन ली थी। अब लव का चेहरा देखने लायक था। केशव प्रसाद बोले, ‘बेटा, मैं तो जानता था कि ऐसा ही होना था। आ चल मैं तुझे अपने दोस्त से मिलवाता हूं। दोस्त तो मेरा एक ही है पर वह हजारों में नहीं लाखों में एक है’।
केशव प्रसाद लव को लेकर अपने दोस्त बनवारी लाल के घर गए, तब तक दो बज चुके थे। बनवारी लाल के मकान के बाहर पहुंच कर केशव प्रसाद ने हल्के से दरवाजा थपथपा कर कहा, ‘बनवारी लाल। केशव प्रसाद आया हूं। दरवाजा खोलो’।
अंदर से आवाज आई, ‘केशव भाई, दो मिनट रुको मैं आया’।
दो मिनट बाद ही बनवारी लाल ने दरवाजा खोला तो उसके एक हाथ में नंगी तलवार थी और दूसरे हाथ में एक काले रंग का बैग था।
बनवारी लाल बोला, ‘केशव मेरे भाई। आप इस समय मेरे पास आए, साधारण हालात तो हो नहीं सकते। सिर्फ इतना कहूंगा कि अगर किसी ने आपके साथ झगड़ा किया है तो इस बच्चे को मेरे घर में छोड़ दें। यह तलवार मेरे हाथ में है। मैं आपके साथ चलता हूं। आपने केवल बताना है, विरोधियों के साथ मैं लड़ंगा। जो भी नतीजा निकलेगा मैं संभाल लूंगा। अगर झगड़ा नहीं हुआ तो किसी अत्यंत जरूरी कार्य के लिए पैसों की जरूरत होगी। यह नोटों से भरा बैग ले जाओ और अपनी जरूरत पूरी करो’।
लव ने जब अपने पिता के दोस्त की ये बातें सु्नीं तो अपने पिता के पैरों में गिरकर रोने लगा और रोते-रोते बोला, ‘मुझे माफ कर दें। आपने और अंकल ने मेरी आंखें खोल दी हैं। अब मैं दोस्तों को नहीं पुस्तकों को अपना सच्चा दोस्त मानूंगा और अपना भविष्य उज्वल बनाऊंगा’।
बनवारी लाल यह दृश्य देखकर पहले तो हैरान सा खड़ा रहा, पर उसे समझते देर न लगी कि केशव प्रसाद ने अपने बेटे लव को दोस्ती का सही अर्थ बताने और गलत रास्ते से बचाने के लिए यह रास्ता चुना था।