“हाँ… पर मैंने आपको पहचाना नहीं।” मणिधर आश्चर्य से बोला।
“आपको पड़ोस वाले गाँव में तुरंत चलना हैं। जमींदार साहब ने बुलाया हैं।” उसने एक साँस में जवाब दिया।
जमींदार का नाम सुनकर मणिधर घबरा गया और तुरंत उसके साथ चल पड़ा, पर बैलगाड़ी में बैठते ही उसने मणिधर कीआँखों में पट्टी बाँध दी।
“अरे-अरे, ये क्या कर रहे हो?” मणिधर ने घबरा कर पूछा।
“चुपचाप बैठे रहो। जमींदार साहब का हुक्म हैं कि तुम्हारी आँखों पर पट्टी बाँध के ही लाया जाए।” वह आदमी डपट कर बोला तो मणिधर सहम के चुपचाप बैठ गया।
जब थोड़ी देर बाद बैलगाड़ी रुक गई तो थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद मणिधर की आँखों की पट्टी उस आदमी ने खोल दी। मणिधर ने जब आँखें मलते हुए अपनी आँखें धीरे से खोली तो वह स्तब्ध रह गया। उसके सामने बिलकुल वैसा ही मकान था, जिसका सपना वह बरसों से देख रहा था।
“यह.. यह तो…” मणिधर की जुबान मानो तालू से चिपक कर रह गई थी। वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा था।
वह व्यक्ति हँसता हुआ बोला – “जन्मदिन मुबारक हो। यह तोहफ़ा तम्हारे सबसे अच्छे दोस्त धीनू का हैं।”
मणिधर जैसे नींद से जागा और पागलों की तरह से उसकी ओर देखने लगा।
“हाँ, ये घर धीनू ने ही तुम्हारे लिए ख़रीदा हैं। तुम्हारे पैसे उसने उस जगह से निकाले जहाँ पर तुमने छुपाये थे, और पर पैसे कम होने की वजह से उसने अपनी जमीन भी बेच दी और तुम्हारे लिए यह मकान ख़रीदा।”
“पर उसने तो मुझे कुछ बताया नहीं।” मणिधर बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोकते हुए भर्राए गले से बोला।
“तुम गाँव में नहीं थे और कोई दूसरा आदमी यह मकान खरीदने वाला था, इसीलिए वह पैसे लेकर सीधा यहाँ आ गया और मकान खरीदने के बाद बोला – “मणिधर के “सपनों का मकान” मैं उसके जन्मदिन पर दूंगा।”
यह सुनते ही मणिधर उल्टे पाँव जोर जोर से रोते हुए अपने गाँव की ओर भागा, अपने सच्चे ओर अच्छे दोस्त धीनू से माफ़ी मांगने के लिए, जिस पर उसने बिना कुछ जाने और पूछे उस पर बिना कारण शक किया था।
अंतिम वाक्य कहते हुए दादाजी की आँखें नम हो उठी, और उन्होंने अपना चश्मा उतारते हुए बच्चों की ओर देखा। तभी शांतनु दौड़कर अपनी जगह से उठा और दौड़कर मोहन के गले लग गया। सभी बच्चे ये देखकर ख़ुशी से ताली बजने लगे और उसके बाद कभी किसी बच्चे ने बेवज़ह किसी पर शक नहीं किया बल्कि लोगो पर विश्वास करना सीखा।