गुल्लक: दिल को छू लेने वाली बाल-कहानी

गुल्लक: दिल को छू लेने वाली बाल-कहानी

गुल्लक: कानू चाचा ठेले पर इमली की लाल चटनी बेचा करते थे। उनके ठेले पर कच्चे आम के टुकड़े भी बिकते, जिसमें लाल मिर्च डाल कर कानू चाचा हमें देते थे।

उस समय आज की तरह चीजें महंगी नहीं हुआ करती थीं। चवन्नी या अठन्नी ही हमें रोज घर से मिला करती थी। कानू चाचा पुराने पीपल के पेड़ के नीचे अपना ठेला लगाते थे। छुट्टी और टिफिन के समय बच्चे उन्हें घेर लेते थे और उस समय उनकी दुकान पर इतनी भीड़ बढ़ जाती कि कभी-कभी कानू चाचा हमें दिखाई ही नहीं देते थे, लेकिन वह वहीं ठेले पर आम के कच्चे टुकड़ों के बीच नमक और मिर्चडालकर बच्चों को बेचते मिलते।

जब टूट गयी ‘गुल्लक’: महेश कुमार केशरी

लाल इमली की चटनी हमारी फेवरिट थी। इसके अलावा वे पाचक और जीरा बद्टी भी बेचते थे। एक मर्तबान में काले बेर पड़े रहते थे, जो आठ आने के दस मिलते थे। उन बेरों में हमारे प्राण बसते थे।

चटनी, कच्चे आम, स्कूल और दोस्त ही हमारा जीवन था। इतनी भाग दौड़ भरी जिंदगी नहीं थी। शाम तक कानू चाचा के पास सौ-डेढ़ सौ रुपए तक की बिक्री हो जाती थी।

कानू चाचा काने थे लेकिन बहुत ही हंसमुख थे बात-बात पर हम बच्चों को हंसाते रहते। चुटकुलों-लतीफों की बहुत लम्बी फेहरिस्त थी कानू चाचा के पास। हम बच्चों का आकर्षण कच्चे आम और जीरा बट्टी के अलावा कानू चाचा ही हुआ करते थे। कहानियों का एक जखीरा था उनके पास। अभिशप्त चुड़ैलों का परियों में रूपांतरण होने से लेकर बूढ़े किसान के मेहनती और ईमानदार होने तक के कई किस्से होते थे उनके पास।

उनकी कहानियों में रोमांच, डर, चौंकना सब एक ही साथ होता था। हम लोग उनकी बातें सांसें रोक कर सुनते। उनकी भूतों वाली कहानियां सुनकर हम कभी-कभी डर जाते।

मुझे अच्छी तरह याद है, उस समय हम सातवीं क्लास में पढ़ते थे। कुछ दिनों से कानू चाचा अपनी दुकान नहीं लगा रहे थे। हम बच्चों का मन उदास रहने लगा था। करीब सप्ताह भर बाद हम लोगों को पता चला कि कानू चाचा बहुत बीमार हैं। तब हम बच्चे अपनी-अपनी साइकिल लेकर कानू चाचा से मिलने उनके घर पहाड़पुर गए थे।

वह सचमुच बीमार थे। उनकी बूढ़ी पत्नी और लड़की रूपा उनकी सेवा में दिन-रात लगी रहते थीं। कानू चाचा का हाल जानकर हम वहां से चल पड़े। रास्ते में हमने योजना बनाई कि गरीब, बीमार और असहाय कानू चाचा की मदद हमें हर हाल में करनी चाहिए। हमारे पड़ोस में जान-पहचान के एक डावटर रहते थे। उनका नाम बंसल चाचा था। हमने अपनी समस्या उनको बताई। अगले दिन एक आये से हम बच्चे बंसल चाचा को लेकर कानू चाचा के घर पहुंचे। डाक्टर ने कानू चाचा की नब्ज टटोली फिर जीभ का रंग टोर्च से देखा। टोर्च से ही आंखों का मुआयना किया। फिर उन्होंने कुछ टैस्ट किए। कानू चाचा कौ पत्नी से ही हमें पता चला था कि ठेला नहीं लगने के करण उनका परिवार भुखमरी की कगार पर आ गया है। इलाज और डाक्टर कौ फीस भरने तक के पैसे उनके पास नहीं थे। हम सभी साथियों ने फैसला किया कि हमारी पाकेट मनी, जो गुल्लक में जमा रहती थी, को तोड़ कर कानू चाचा की दवाई, टैस्ट और फीस के लिए दे देंगे।

शहर से कानू चाचा की रिपोर्ट आ गई। उन्हें दरअसल मलेरिया हो गया था। डाक्टर चाचा ने कागज पर कुछ दवाइयां लिख कर हमें दीं। तब हमने अपनी-अपनी गुल्लक से टैस्ट और डाक्टर चाचा को फौस के पैसे दिए थे। डावटर चाचा हम बच्चों की किसी असहाय गरीब की मदद करने वाली भावना से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने अपनी फीस हमसे लेने से साफ मना कर दिया और हम लोगों को शाबाशी भी दी थी।

पर्ची लेकर हम बच्चे गांव के ही मेडिकल स्टोर से कानू चाचा के लिए दवाई खरीद कर ले आए थे। कानू चाचा और उनकी बूढ़ी पत्नी ने हम बच्चों को बहुत आशीर्वाद दिया था। करीब महीने भर बाद कानू चाचा ने अपना ठेला लगाया और हम फिर से कच्चे आम, बेर और इमली की चटनी का आनंद लेने लगे थे।

~ महेश कुमार केशरी

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