हाँ… सर, वैसे तो आप कभी कोई बात गलत नहीं कहते। पर कर्ण की तो छाती में कवच था और कानों में कुण्डल, और यहाँ आप कानों में कवच पहनने की बात बता रहे हैं… सुरभि ने बड़े ही भोलेपन से पूछा तो कक्षा के सभी छात्र ठहाका मारकर हँस पड़े।”
शर्मा सर हमेशा की तरह मेज पर हाथ मारकर हँसते हुए बोले – ” बिटिया, अगर कानों में कुण्डल पहन लोगी तो हवा के साथ शब्द भी तो तुम्हरे मूढ़ में जाकर पालथी मारकर बैठ जाएंगे।
हा हा हा हा… सर, इसको तो ऐसे ही बीमारी हैं कुछ ना कुछ उल फजूल पूछने की… धीरज जो कि उनका बेटा था और उनकी बी.ए. तृत्य वर्ष की कक्षा का छात्र भी था।
पहले तो धीरज उन्हें क्लास में भी पापा ही कहता था पर आखिर चार सालों की जूतम जुताई के बाद वो अपने इकलौते ढीठ सुपुत्र को रास्ते पे लाने में सफल हो ही गए थे।
जिस दिन भी धीरज उन्हें कक्षा में पापा बोलता, कक्षा में हँसी का फव्वारा छूट जाता आखिर छूटे भी क्यों ना, कहाँ तो बेचारा दिया सलाई जैसा मरियल सा धीरज, जो बेचारा अपनी सुड़कती नाक के चश्मे के साथ कमर के 20 इंच के घेरे में अपनी ढीली ढाली पैंट को भी बड़ी मुश्किल से संभाल पाता था और कहाँ दूसरी तरफ शर्मा जी थे, जो दूर से उनकी गंजी खोपड़ी से लेकर पैर की एड़ी तक एक चलती फिरती बड़ी गेंद की तरह नज़र आते थे। धीरज उनकी बुढ़ापे की औलाद था तो ज़ाहिर था कि सारे बसंत देखने के बाद ही वो ग्रीष्म ऋतू में पके आम सा उनकी गोदी में आ गिरा था। जब सब लोग धीरज को देखते जो अपनी उम्र से कम से कम पाँच साल कम लगता था, तो कल्पना ही नहीं कर पाते थे कि आखिर शर्मा जी ने उसके हिस्से का गेंहू कहाँ छुपा दिया था।
पर बात यहीं तक सीमित नहीं थी।
दरअसल धीरज थोड़ा सा शर्मीला और दब्बू किस्म का बच्चा था जो किसी की तेज आवाज़ से ही काँप उठता था, वहीं दूसरी ओर शर्मा जी थे जिनकी आवाज़ का गर्जन समुद्र की लहरों की भाँति पूरे स्कूल के छात्रों से लेकर बाग़ बगीचे के हरी भरी पतली लताओं को भी सिहरन से भर देता था।
आज भी कक्षा में धीरज की जगह अगर कोई ओर छात्र सुरभि को लेकर चुहलबाजी करता तो उन्हें तनिक भी बुरा नहीं लगता पर वो सुरभि को फूटी आँखों से भी देखना नहीं पसंद करते थे। क्योंकि वो उनके स्कूल में काम करने वाले दीनू माली की बेटी थी और बचपन से स्कॉलरशिप पर अपनी मेहनत और लगन से पढ़ती चली आ रही थी। वो घंटों अकेले में बैठ कर सोचा करते थे कि उन जैसे प्रकाण्ड पंडित का बेटा पढ़ने में बिलकुल औसत दर्जे का, जिसके आगे अब डंडे और जूतों ने भी हार मार ली थी और दूसरी तरफ़ दीनू जैसे घास-फूस साफ़ करने वाले की बेटी जो सुन्दर सभ्य होने के साथ साथ कुशार्ग बुद्धि की स्वामिनी थी। जैसे उसके सिर पर माँ सरस्वती का हाथ था, जहाँ बच्चों को कई बार बताने पर भी गणित और केमिस्ट्री के सवाल समझ में नहीं आते वहीँ झटपट वो अपने सवाल हल करके धीरज को समझाने बैठ जाती।
शर्मा जी हार कर फिर खुद ही मन में कहते… अरे मेरे इकलौते कुपुत्र… तू कब तक मिट्टी का लोंदा बना रहेगा रे… और फिर मानसिक शान्ति के लिए मन ही मन दुर्गा सप्तशती का पाठ दोहराते हुए सो जाते।