स्कूल के सामने एक झोपड़ी में उसने छोटी-सी दुकान खोल रखी थी जहा से वह बच्चों को स्याही कलम पेंसिल कापी आदि छोटी छोटी चीजें बेचता था। उसकी इस दुकान से ही उसका जीवन-निर्वाह होता था। उसके बारे मे यह कहा जाता था कि उसकी गांव में कुछ खेती भी थी मगर उसके लड़कों ने उससे छीन ली और उसे घर से निकाल दिया था। उसने भी कभी अच्छे दिन देखे थे अब तो वह अपने जिवन के दिन पुरे कर रहा था।
मुझसे बड़े होने के व सभ्यता के नाते मैं उन्हे बाबाजी कह कर बुलाता था। मगर मुझे वास्तव में उन से चाल ढाल से उनकी सुरत से न जाने क्यों घृणा सी थी। जब शाम को वह हाथ मे चिलम पकड़ कर मेरे पास स्कूल से आता था तब मैं उसे दर्जन गालियाँ दिया करता था। मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे पास आया करे। जब भी वह आकर बैठता मैं उठ कर टहलने लगता था। जब वह मुझसे बात करने लगता में किताब उठाकर पढ़ने लगता। मगर मेरी इन हरकतों का उस पर कोई असर नहीं होता था। जहां शाम हुई नहीं वह अपनी चिलम लेकर आ बैठता।
कभी कभी कहता – “मास्टर जी रोटी बना ली होगी”
“हाँ – बना ली।”
“सब्जी क्या बनाई थी”
“आलु बनाये थे।”
“थोड़ी सब्जी बची भी होगी।”
इस तरह वह रोजाना मुझसे कुछ सब्जी या दाल ले लिया करता था। फिर एक काले रुमाल में बंधे दो बाजरे के टिक्कड़ निकालता और बैठ कर खाने लगता। यह देखकर मेरा जी जल उठता था। गंदे कपड़े – गंदी रोटियॉँ और खाने का गंदा तरीका। वह बिलकुल भी साफ नहीं रहता था। सफाई क्या है ये ये तो वो जानता ही नहीं था।
उस बुढ़े ने मेरा जिवन दुभर कर दिया था। उसे स्कूल में आने से रोकने के लिए मैं कुछ तरिका सोचने लगा। एक दिन ऐसे हि बैठे मेरे दिमाग में बात आई और अगले हि दिन मैंने उसका इस्तेमाल किया। जब शाम को वह स्कूल के बहार आया तब मैंने गरजकर कहा –
“बाबा जी – कल शाम को जब तुम आए थे तब मेज पर दस रुपए का नोट रखा था।”
“न महाराज – मुझे तो नहीं पता ” हाथ जोड़ कर बोला।
“इस तरह हाथ जोड़ गिड़गिड़ाने से तुम यह साबित नहीं कर सकते कि तुमने नोट नहीं उठाया। मैं तुम जैसे नीच लोगो को खुब जानता हुँ।”
“पहचानते होंगे महाराज – भगवान जानता है कि मैंने नोट नहीं देखा।”
“अब यह बाते छोड़ों अगर तुम बुरे न होते तो तुम्हारे लड़के तुमको क्यों निकालते। कमीना कहीं का भाग जा यहां से। ख़बरदार जो फिर कभी यहां पर नजर मत आना।”