पितृ दिवस पर कहानी: बाबूजी

परोपकार – श्री पारसनाथ सरस्वती

वह मेरी तरफ देखते हुए चिलम उठा के चल दिया। मैंने उसका चेहरा देखा – उसका दिल टूट गया था। उसकी आखों से ऐसा लग रहा था जैसे कि वह कह रहा हो “मैं गरीब हुँ निर्बल हुँ मगर चोर नहीं हुँ”।

मुझे जो भय घेरे हुए था वह अकारण नहीं था। थोड़ी देर बाद मैं लघुशंका के लिए उठा तो मेरी चारपाई के निचे एक सांप लेटा हुआ था। मेरा ह्रदय जोर जोर से धक धक करने लगा। मैंने तकिये के नीचे से दियासलाई निकाली वे सरदी खा गयी थी। कई तीलियाँ रगड़ी परन्तु वह जली नहीं।

लाचारी से मैंने जोर से दूसरी चीख मारी। शायद बाबा जी ने सुनी हो परन्तु वह बेचारा मेरी सहायता के लिये क्यों आने लगा। मरता क्या न करता मैंने भगवान का नाम लिया हिम्मत बाँध कर चारपाई के सिरहाने से उतर कर कमरे में गया। बक्से में से नयी दियासलाई निकाली और लालटेन जलायी। एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर बाहर निकाला परन्तु सांप गायब था। मैं लालटेन फर्श पर रखा चारपाई पर बैठ गया। परन्तु सांप के भय से मेरा ह्रदय काँप रहा था। काफी देर बैठे रहने के बाद मैंने सोचा कि शर्म को एक तरफ रखकर बाबा जी के घर के सामने जा खड़ा हुआ। मेरे पुकारने पर बाबा जी ने कोई जवाब नहीं दिया।

मैंने फिर से पुकारा तब अन्दर से आवाज आई “कौन है”।

“मैं हूं”

“कौन – मास्टर जी”

“हाँ”

“क्या बात है” बाहर आकर वह बोला।

“मुझे डर लगता है। तुम वहाँ चलो।”

“कहाँ चलु”

“स्कूल में।”

“क्यों”

“अभी अभी एक भयानक सांप मेरी चारपाई के नीचे लेटा था।”

“न महाराज मैं तो चोर हूँ। मैं स्कूल में नहीं जाता।”

फिर पता नहीं शायद उन्हे मुझ पर तरस आ गया। उन्होंने पुछा “कितना बड़ा सांप था।”

“होगा कोई दो गज लंबा”

“हुँ” कहकर उसने मुँह फेर लिया।

“हूँ क्या बाबा जी”।

कौड़िया नाग होगा। उसका काटा पानी नहीं मांगता।

“तो फिर” मैंने गिड़गिड़ा कर कहा।

“तो फिर मैं क्या करूँ। तुम जाओ।”

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