आतंकवाद, अपराध और फिरौती की घटनाओं से शहर और प्रदेश की हवा भय और असुरक्षा की आंधी में बदल चुकी थी। हर दिन किसी न किसी वारदात से लोग सहमें हुऐ थे।
वे भूल गये थे कि प्रदेश में सरकार या पुलिस भी है। वे चाहने लगे थे कि शीघ्र चुनाव हो और सत्ता उर्जावान, ईमानदार नई पौध को सौंप दी जाए।
परंतु सत्ताधारी दल भी कम घाघ नहीं था। चुनाव की घोषणा के साथ ही, उसने उन नये चेहरे की आपराधिक पृष्ठभूमियों को उजागर करना शुरू कर दिया… जाति ओर सम्प्रदायों के चित्र उभरने लगे। चुनावी संघर्ष आरोप-प्रत्यारोप में बदल गया।
दिलबाग को इन सब बातों से कुछ लेना देना नहीं था। उसने किसी भी चुनाव में किसी को भी वोट नहीं दिया था। इस बार भी नहीं दिया। पर उसकी सक्रियता के बिना कभी भी चुनाव नहीं हुए थे क्योंकि उसके पास अपना रिक्शा, अपनी बैटरी और अपना माइक था जिसकी बुकिंग हर चुनाव में किसी न किसी उम्मीदवार के पास होती थी और दिलबाग चुनाव प्रचार का ज़रूरी हिस्सा बनता था।
मतदान के बाद नतीज़े आये तो विधानसभा लगंड़ी हो गई। कोई भी दल बहुमत नहीं प्राप्त कर सका। निर्दलियों ने अपनी क़ीमत पायी और फिर से एक सरकार बन गई।
लोगों की उत्सुकता शान्त हो गई।
अपराध और फिरौती बदस्तूर जारी रही। जनता सहमी रही। सरकार का चेहरा वही था। विपक्ष बदल गया। उसने विरोध का झण्डा बुलन्द कर दिया। नई सरकार पर उसका कोई असर नहीं हुआ। उसने अपनी पहली वर्षगाँठ भव्य इन्डोर स्टेडियम में बड़े भव्य ढ़ँग से मनाई। जिसमें नये और पुराने सभी चेहरों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
जनता टुकुर-टुकुर देखती रही। सहम-सहम कर सिर धुनती रही। दिलबाग अब भी इन सब बातों से बेख़बर था। वह बस एक ही बात, “चुनाव कब होंगें?” क्योंकि हर चुनाव बार-बार हों और वह इसमें हिस्सा ले।
उसने न कभी वोट दिया है न कभी देगा पर लोकतन्त्र को अपने काम से मजबूर रहेगा।