बड़े घर की बेटी (2): मुंशी प्रेमचंद
आनंदी ने कहा – घी सब मांस में पड़ गया। लालबिहारी जोर से बोला – अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया?
आनंदी ने उत्तर दिया – आज तो कुल पाव-भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।
जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है – उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला – मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!
स्त्री गालियाँ सह लेती है, मार भी सह लेती है; पर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली – हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी नित्य नाई – कहार खा जाते हैं।
लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला – जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ।
आनंदी को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली – वह होते तो आज इसका मजा चखाते।
अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला – जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।
आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया। पर उँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भाँति काँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घंमड होता है। आनंदी खून का घूँट पी कर रह गयी।
श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। बृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही। न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही। अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे। यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गाँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे! किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लालबिहारी ने कहा – भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुँह सँभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायेगा।
बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर से साक्षी दी – हाँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मुँह लगें।
लालबिहारी – वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी – कहार नहीं हैं। श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा – आखिर बात क्या हुई?
लालबिहारी ने कहा – कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं। मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझतीं ही नहीं।
श्रीकंठ खा-पी कर आनंदी के पास गये। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पूछा – चित्त तो प्रसन्न है।
श्रीकंठ बोले – बहुत प्रसन्न है। पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?
आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली – जिसने तुमसे यह आग लगायी है, उसे पाऊँ, तो मुँह झुलस दूँ।
श्रीकंठ – इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो।
आनंदी – क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है! नहीं तो गँवार छोकरा, जिसको चपरासगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यों न अकड़ता।
श्रीकंठ – सब हाल साफ-साफ कहो, तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।
आनंदी – परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हाँड़ी में पाव-भर से अधिक न था। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा – दाल में घी क्यों नहीं है। बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा – मुझसे न रहा गया। मैंने कहा कि वहाँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊँ फेंक मारी। यदि हाथ से न रोक लूँ, तो सिर फट जाये। उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ।
श्रीकंठ की आँखें लाल हो गयीं। बोले – यहाँ तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस!