नशा - पश्चाताप की कहानी

नशा: तम्बाकू सेवन के हानिकारक प्रभाव और पश्चाताप की कहानी

क्या चाचा, लो जरा सा आईना तो देख लो… कितने दिन हो गए तुमने बाल भी नहीं सँवारे।

सूरज की आवाज़ से मैं खिड़की से बाहर झाँकता हुआ जैसे नींद से जागा।

मैंने पनियल आँखों से सूरज की ओर देखा, जो मेरा भतीजा था पर आज मेरे बेटे से बढ़कर मेरा साथ दे रहा था।

वो मेरी मन-स्तिथि समझ गया पर जबरन मुस्कुराते हुए बोला – “आज रात में आप इस हस्पताल से मुक्ति पा जाएंगे और अब आपको सच को स्वीकार करते हुए हिम्मत से आगे बढ़ना पड़ेगा”।

शायद खुद से ही नज़रें चुराते हुए मैंने काँपते हाथों से वो लाल रंग का छोटा सा आईना ले लिया।

मैंने सबसे पहले अपने दाएँ गाल की तरफ़ सरसरी तौर से देखा और मेरा कलेजा मानो डूब गया। मेरे चेहरे में आधे से ज्यादा हिस्सा मेरे सीने के मांस का था… होंठो के पास से कान तक की सिलाई के वो बड़े बड़े निशान, जो मुझे कभी कपड़ो पर देखना भी गंवारा न थे, आज मेरे मुँह पर ताउम्र के लिए सिल दिए गए थे।

आईना मेरे टपकते आंसुओं से कब धुंधला गया मैं जान ही नहीं पाया… बहुत नाज़ था मुझे मेरे इस गोरे चिट्टे चेहरे पर, जब दोस्त मेरे पान खाने के बाद मेरे लाल होंठो की तारीफ़ करते तो मैं अपनी ही खूबसूरती पर मुग्ध हो जाता। लाल होंठ और गोरा रंग तो जैसी मेरा पर्याय बन चुका था और शायद पान खाने की लत भी… जो मैं शायद जान ही नहीं सका था… वैसे भी अपने दुर्गूढ़ भला खुद को कहाँ नज़र आते है, और जब कोई बताता है तो हम उस व्यक्ति से ही उकता कर दूर हो जाते है, पर खुद को नहीं बदलते।

पर चाचा, बताओ तो आखिर हुआ क्या था… कि तुम्हारे मुंह में कैंसर की गाँठ हो गई, और तुम जान भी ना पाए।

मैंने आईना पलट दिया और बोला – “दोस्तों यारों के साथ शौक-शौक में खाई तम्बाकू ही हमारी जान की दुश्मन बन गई”।

जब कभी तम्बाकू के सेवन से होने वाले दुष्परिणाम पढ़ता तो सोचता कि अब नहीं खाऊँगा, पर हाथ जैसे दिमाग के काबू में ही नहीं थे, हम आखिरी बार कि कसम खाते हुए रोज़ाना पान, गुटका खाने लगे।

एक दिन खाना खाते समय दाँत से हमारा बाँया गाल कट गया और हमने उस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया क्योंकि कई बार गाल कटा और फिर दूसरे ही दिन ठीक भी हो गया।

पर इस बार… कहते हुए मेरा गला रूंध गया।

इस बार क्या अलग हो गया… सूरज ने मेरे चेहरे पर अपनी भूरी आँखें गड़ाते हुए पूछा।

मेरी खैनी, तम्बाकू और सुपारी घाव में लगती चली गई, माँस में सुपारी के नुकीले कणों ने घाव को रगड़कर ताजा ही रखा और तम्बाकू के कारण घाव फैलता ही चला गया।

इस कारण मेरा घाव ठीक नहीं हुआ और फिर उसमें गाँठ महसूस होने लगी। जब गाँठ बड़ी हो गई तब भी मैं घरवालों से छिपाता रहा। एक दिन मैं लेटे हुए टीवी देख रहा था और अचानक मैंने जम्भाई ली, पत्नी जो कि बिलकुल मेरे बगल में ही बैठी हुई थी अचानक चीख उठी और बोली – ” आपके दाएँ गाल में तो गाँठ बन गई है…

चलो जल्दी अभी डॉक्टर के यहाँ…

सूरज जो की पूरी तल्लीनता से मेरी बात सुन रहा था आश्चर्य से बोला – “फिर गए आप डॉक्टर के यहाँ”?

जाना ही पड़ा… पत्नी ने आंसुओं का ब्रह्मस्त्र जो छोड़ा था…

सूरज उत्सुकता से बोला – “फिर क्या बोला डॉक्टर…

डॉक्टर बड़ा भला आदमी था उसने गाँठ देखते ही अपने सर पर हाथ रख लिया और पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।

उसकी चिंता की लकीरों में मैंने अपनी बीमारी साफ़ पढ़ ली थी, पर मेरी पत्नी लगातार डॉक्टर से मेरी बीमारी पूछ रही थी।

डॉक्टर शायद मेरी पत्नी का उतरा चेहरा और घबड़ाहट देखकर साफ़ साफ़ नहीं बता पा रहा था… पर एक गिलास पानी पीने के बाद वो कुछ संयत होते हुए बोले – “ये क्या कर बैठे तुम”?

एक रिक्शा चलाने वाले के भी अगर एक भी दाना निकल आता है तो वो भी यहाँ आकर अस्पताल सिर पर उठा लेता है और तुम्हारे इतनी बड़ी गाँठ हो गई और तुम चार कदम चल के ना आ सके।

उसके बाद भी वो नहीं रूका और मुझे डाँटते ही चला गया, पर मैं जान रहा था कि उन्हें मेरी चिंता थी और मेरी पत्नी तो बिलकुल निढाल होकर वहीं ज़मीन पर बैठ गई।

उनके बिना कहे ही हम दोनों समझ चुके थे कि मुझे कैंसर हो चुका है, इसमें कोई दो राय नहीं थी।

फिर… सूरज रुआंसा होते हुए हुए बोला।

फिर क्या था, डॉक्टर बोला, अब कैंसर के इलाज में आपको और देर बिलकुल भी नहीं करनी है… आज से ही जांच का काम शुरू करना पड़ेगा… और उनके इशारा करने पर वहाँ खड़ी सिस्टर ने उन्हें स्टेपलर जैसा कोई औज़ार पकड़ाया जिससे डॉक्टर ने मेरी गाँठ में से थोड़ा माँस काटा और खून रोकने के लिए उस जगह पर रूई लगा दी।

चाचा, धूम्रपान से कैंसर होता है, ज़िंदगी नरक से बदतर हो जाती है, तब भी लोग इस लत को क्यों नहीं छोड़ते देते है? सूरज ने आक्रोशित होते हुए पूछा।

मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा – “सभी सोचते है कि हमें थोड़े ही होगा, हम सब उस जादूगर की तरह है जिसने सभी भेड़ो पर वशीकरण कर रखा था वो वे नहीं मरेंगी, तो जब भी वो किसी भेड़ को मारता था तो बाकी भेड़े ना तो वहां से भागती थी और ना ही डरती थी… वो आराम से यहाँ वहां घूमती रहती थी… मैंने भी तो मेरे चाचा को देखा था तम्बाकू के कैंसर से दिन रात तड़पते, पर मैंने भी गुटखा नहीं छोड़ा।

सूरज ने ये सुनकर कस के मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला – ” भगवान कितना गलत करता है”।

मैंने उसकी तरफ़ देखा और रूंधे स्वर में बोला – “तम्बाकू खाने के लिए भगवान ने थोड़े ही कहा था। ये तो पूरी मेरी ही गलती थी”।

खैर रिपोर्ट में जब कैंसर आया तो पत्नी अड़ गई कि तुरंत इलाज शुरू करवाओ… हम सब दिल्ली चलते है बड़े अस्पताल में…

नहीं, इलाहबाद छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा… मैं यहीं पैदा हुआ हूँ और यहीं मरूँगा।

मेरी हालत देखते हुए पत्नी ने तुरंत मेरी बात मान ली।

खैर अगले दिन हम हस्पताल पहुंचे… वहाँ डॉक्टर बोला – “आप तुरंत कीमोथेरपी शुरू कराइये…”

चाचा… वो तो बहुत महँगा होता है ना… सूरज धीरे से बोला।

हाँ… एक कीमो में पंद्रह हज़ार रूपया लगता था… पत्नी ने सारे गहने बेच दिए… कहते हुए मेरी आँखें भर आई।

पर गहने बेचने से कहीं ज्यादा तकलीफ़ उसे कीमोथेरेपी के दौरान मेरे दर्द को देखकर हो रही थी।

ड्रिप लगी तो मेरे हाथ में थी पर उसकी दवा आँसूं बनकर उसकी आखों से छलक रही थी। उलटी, चक्कर, बैचेनी, घबराहट, मुँह का स्वाद इतना खराब कि किसी भी खाने की चीज़ को देखकर घृणा होने लगे… सब कर्म हो गए मेरे कीमोथेरेपी के दौरान… एक बार चढ़ाकर इक्कीस दिन बाद दुबारा बुलाया। घर जाने के बाद बस हम सभी दिन गिनते रहते थे कि कब दूसरी बार कीमोथेरेपी होगी… पर सोलहवें दिन ही गाँठ फूट गई और उसमे से पस निकलकर गाल के बाहर की तरफ से बहने लगा…

सूरज के मुँह से ये सुनकर चीख निकल गई…

मैंने सूरज का हाथ पकड़ते हुए कहा… घबराओ मत, अब आगे सुनो… जब पस गाल के बाहर की तरफ से बहने लगा तो पत्नी और बेटी भरभराकर रो पड़ी और मैं पहली बार अंदर से काँप गया। फिर हम सब बदहवास से तुरंत दौड़े डॉक्टर के यहाँ… डॉक्टर बोला अब तो इसका ऑपरेशन ही करना पड़ेगा ..घरवालों के चेहरे डर से पीले पड़ गए… डॉक्टर पत्नी को ढाँढस बंधाते हुए बोला – “आप सब हिम्मत मत हारिये वरना ये मर्ज़ आपको जीत लेगा… अगर आप टेंशन नहीं लेंगे तो आपके पति बहुत जल्दी ठीक हो जाएँगे।

पांच दिन बाद का समय डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए दिया…प र वो पांच दिन मेरा फटा हुआ गाल देखकर मेरा मन हर पल रो रहा था। तम्बाकू के नाम से भी मुझे अब घिन आ रही थी, जिसने मुझे आज इस नरक के द्वार तक पहुँचा दिया था।

एक जनवरी के दिन मुझे एडमिट कर लिया गया और दो तारीख को मेरा ऑपरेशन कर दिया… मेरे बायें तरफ़ के सारे दांत निकाल दिए मेरे सीने का माँस निकालकर चेहरे पर लगा दिया… देख रहे हो ना सूरज, मेरे एक शौक ने मेरी पत्नी और बेटी को सड़क पर ला दिया… सारी जमा पूंजी खत्म हो गई, बेचारी मेरी पत्नी कभी अपने पल्लू से अपनी सूनी कलाईयों को ढाँकने की नाकाम कोशिश करती तो कभी गले में बिटिया का सूती दुपट्टा डाल खाली गला छुपाती… पीतल के बड़े बड़े कलसों ने ना जाने कब महाजन कि दुकान का रास्ता इख्तियार कर लिया था, …सच्चाई जानते हुए भी हम सब एक दूसरे के सामने खुश रहने का भरपूर अभिनय करते… जो लोग मेरी चाय पीने के लिए दूर दूर से आते थे उन्होंने भी मुझसे अब मुँह फेर लिया था कि कहीं मैं ऑपरेशन के लिए किसी प्रकार की मदद ना माँग लू। मेरी केन्टीन बंद हो गई और मेरा ये चेहरा जिस पर मुझे इतना गुमान था आज बेहद बदसूरत बन गया… बेहद बदसूरत… और मेरी आँखों से गिरती बड़ी बड़ी बूंदें मेरी गोद में रखे आईने को भिगोने लगी और बंद आँखों से भी मैं सूरज का रोता हुआ चेहरा साफ़ देख रहा था।

~ डॉ. मंजरी शुक्ला

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