सामने चाय का खोखा था। मैंने गाड़ी किनारे लगा दी। उसकी बगल में काली चीकट जमीन पर लोहे का कबाड़ और फटे टायर पड़े थे। पटरी पर बिजली के खंबे के साथ जंजीर से बंधा, एक लकड़ी का बक्सा भी था। इन प्रतीकों से मैं आश्वस्त हो गया कि यह पंक्चर जोड़ने और छोटी-मोटी मिस्त्रीगीरी करने वाले का ही ठीया है। चाय वाले से पूछा, तो उसने कहा – “आने ही वाला है, वैसे तो इस बखत तक आ जाता है… आज लेट है। छुट्टी का दिन है न साब!”
इस चिंता के बावजूद कि नाश्ता ठंडा हो जाएगा – मैंने इंतजार करना ही बेहतर समझा और चाय का आॅर्डर देकर एक ओर खड़ा हो गया। खोखे के सामने दो बेंच पड़ी थीं, जिन पर सात-आठ लोगों का जमावड़ा था। कुछ दुकानों पर काम करने वाले नौकर जैसे, कुछ काम की तलाश में निकले मजदूर थे और कुछ सेवानिवृत्त हुए बाबू लोग भी थे, जिन्हें शायद सैर के बाद घर लौटने की जल्दी नहीं थी। वे गरम चाय की चुस्की के साथ राजनीति और समाज के गिरते स्तर पर चिंता जाहिर कर रहे थे। आजकल सुर्खियों में – महिलाओं से छेड़छाड़, तेजाबी हमला और जबरन यौनिक संबंध की घटनाएं आम हो गई हैं। ऐसी ही कोई घटना चर्चा के केंद्र में थी।
एक सज्जन कह रहे थे, “लॉ एंड आॅर्डर का फेलियर है जी! सरकार भी निकम्मी! पुलिस महकमे पर कब्जे को लेकर आपस में खींचतान मचाए हैं। एक निजाम कहता है- मुझे दे दो, दूसरा कहता है- मेरी है! ऐसे में चोर-बदमाशों की पौ बारह है।” दूसरे सज्जन सहमति जताते हुए बोले, “फिर भी कुछ जिम्मेदारी तो मौके पर मौजूद लोगों की भी बनती है। एक या दो बदमाश पचासों की भीड़ में सरेआम लड़की के साथ बदसलूकी करते हैं, किसी को लूट लेते हैं, चाकू घोंप देते हैं! और देखने वालों में जुंबिश नहीं होती!”
“जान सबको प्यारी है अंकल! घर में मम्मी-पापा रोज सिखाते हैं कि बेटा किसी के लफड़े में मत पड़ना, खामखां पुलिस-थाने के चक्कर… और हां! बदमाश अगर कीमती चीजें छीने भी, तो चुपचाप दे देना… जान है तो जहान हैं।” कहने वाले के होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो गए थे। एक नौजवान अपने मोबाइल पर व्यस्त था। उसने यकायक सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। वह जो सर्च कर रहा था शायद उसे मिल गया। वह बोला, “यह देखो, सुनो जरा!” उसने मोबाइल का वॉल्यूम ऊंचा कर दिया। कुछ लोग उसके इर्द-गिर्द होकर देखने लगे। शेष जहां के तहां से कान लगाए हुए थे।