“अरे यह तो पांसा ही पलट गया!” एक ने आश्चर्य से कहा।
“ओह! तो यह सब नाटक था!” दूसरे को भी हैरानी हुई।
“और नहीं तो क्या? ताकि जागो लोगों! जगो! समय रहते कुछ करो और दोगलेपन से बाज आओ।” मोबाइल वाले लड़के ने कहा।
“सही कहा, परोपकार के लिए जान देने के जमाने गए… नहीं, नहीं! मैं कह रहा हूं कि आमतौर पर! कुछ मिसालें अब भी मिल जाती हैं।” तीसरे बुजुर्ग ने अपनी राय जोड़ दी।
“आजकल लड़कियों ने भी हद कर दी है साहब!” घृणा भरे लहजे में तीसरे ने कहा।
“अजी, घर-बाहर का भेद ही मिट गया है! ऐसे-ऐसे पहनावे, जो कभी घर में नहीं पहने जाते थे! और खुलेआम ऐसी-ऐसी हरकतें! हे ईश्वर! महाकलयुग!”
सभी लोगों ने सहमति में गर्दन हिला दी।
एक बुजुर्ग अब तक खामोश बैठे थे। इस बार उनके लबों में जुंबिश हुई। उन्होंने पहलू बदल कर गले की खराश मिटाई फिर गंभीर स्वर में बोले, “भैया! शहर और उसमें रहने वाले लोग- दोनों की हिफाजत की जिम्मेदारी सरकार की होती है। यानी पुलिस देखभाल करेगी। तो सोचो, फिर हर आदमी घर में ताला क्यों लगाता है? एक कहावत है- चीज न राखे आपनी और चोर को गाली दे। सो भैया, एक हद और जिम्मेदारी सब की बनती है। हम खुद किसी अनहोनी को न्योता तो नहीं दे रहे- यह सोचना तो पड़ेगा न! दूसरी बात यह कि सिक्के के दो पहलू होते हैं… जागरूक होने वाली बात सही है मगर…”