नेकी और नदी के बीच - राजकमल

नेकी और नदी के बीच – राजकमल

वह जिरह पर उतर आई। उसने आगे कहा – “चार सवाल और पूछता, पति है तो साथ क्यों नहीं चलता? ठहर कर बात कर लेता वगैरह! और आप ही बताएं- ऐसा क्या सबूत देती, जिससे मैं आपकी बीबी लगती!” कह कर वह फिर मुस्काराई।

– “जाने वह क्या-क्या नतीजे निकालता!”

– “ओके!” मैंने तुरंत समर्पण कर दिया। खुशमिजाजी बनाए रखने की खातिर मैं उसके पास खिसक आया और कपोल पर एक चुंबन टांक कर फुसफुसा कर बोला- “दोस्त तो लगती हो न? और उसके लिए किसी निशानी की जरूरत नहीं है… बस! मुझे पत्नी चाहिए ही नहीं।”

वह जोर से हंसी थी। लेकिन मेरे भीतर कहीं यह सोच चस्पा हो गई- काष! उस बुजुर्ग की गलतफहमी दूर हो पाती! बुजुर्ग ने एक जागरूक नागरिक के अहसास से भरकर ही हौसला दिखाया होगा कि महिला की मदद की जाए। देखने-सुनने के बाद भी उसके साक्ष्य को जब झुठलाया गया तो उसे कैसा लगा होगा? धारणाओं के बनने में झूठ और सच के बीच बड़ी बारीक लकीर होती है।

मैं सोच और भूतकाल से उबर कर, वर्तमान में लौटा। उधर कहानी के चरम के प्रति उत्सुक लोग बुजुर्गवार के शब्दों पर कान लगाए हुए थे।

“फिर क्या हुआ, साहब! आप तो खामोश हो गए… कुछ तो बोलिए!” दो-तीन स्वर एक साथ उभरे।

बुजुर्ग मुस्कराए और कहा, “कुछ नही! मैं बेवकूफ बन गया, और क्या!”

“कैसे?” लोगों ने पूछा।

“वह औरत साफ मुकर गई। बोली- नहीं, मुझे तो किसी ने नहीं छेड़ा। आपको गलतफहमी हुई होगी। भैया रे! मेरी हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं! कितना अपमानित महसूस किया मैंने, आपको बता नहीं सकता!”

“यह तो वही बात हुई- मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त!” एक ने हंस कर कहा।

दूसरे ने टिप्पणी की – “बहुत नाजुक मसला है। आप हिमायती बनें और अगली कह दे कि हमारे आपस का मामला है, आप कौन होते हैं? और कई छेड़छाड़ के केस तो बदला लेने के लिए ही…”

“क्या पता जी, वह औरत ही ऐसी-वैसी होगी।” किसी ने राय कायम की। बुजुर्गवार बड़ी संजीदगी से बोले-“हां, हो सकता है! लेकिन भैया, मैंने कान पकड़ लिए कि अब ऐसा परमार्थ कभी नहीं करूंगा।”

किस्सा सुनकर मेरी बेचैनी का कोई अंत नहीं था। घटना की परिणति और उसके असर से मैं बहुत दुखी था। ऐसा नहीं होना चाहिए था। यकायक एक खास जज्बे ने मुझे विवश कर दिया। सारी झिझक और शर्म को दरकिनार कर के मैंने कहा – “प्लीज भाईसाब! ऐसी शपथ न लें!”

मुझे सभी ने चकित होकर देखा। बुजुर्ग भी गहरी नजरों से घूरने लगे। पर मैंने अपनी बात जारी रखी।

“आप अपनी अच्छाई न छोड़ें! कहते हैं न – नेकी कर, दरिया में डाल! गलतफहमी भी हो सकती है। जैसे आंखों देखा, कानों सुना, कभी-कभी सच नहीं होता। आपने सिक्के का एक ही पहलू जाना है। हां, उस महिला को बताना चाहिए था कि वह आदमी उसका पति है, कोई और नहीं।”
इतना कहकर मैं गाड़ी की ओर मुड़ गया। मुझे अहसास हुआ – कुछ हैरत भरी निगाहें मेरी पीठ पर चिपकी हैं और हवा में हंसी की खनक भी शामिल है। लेकिन मैं इस बात से ज्यादा परेशान था कि नाश्ता ठंडा हो चुका है और उधर घर का तापमान बढ़ गया होगा।

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