रोते-रोते धन्नों की हिचकियाँ बंध गई थी और आँखें सूजकर लाल हो चुकी थी पर बाबूजी किसी बुत की तरह बिना हिले डुले चुपचाप अपनी आरामकुर्सी पर बैठे हुए थे।
एक दो बार अम्माँ ने धीरे से पैसे देने का इशारा भी किया और बाबूजी ने दाँत पीसते हुए उन्हें ऐसे घूरा कि बेचारी अम्माँ अपना पल्लू संभालती हुई वापस रसोईघर में चली गई।
न्याय: मंजरी शुक्ला
“गरीब की हाय क्यों ले रहे हो बाबूजी” अब तक रोती सिसकती हुई धन्नो ने आँसूं पोंछते हुए कहा।
“शहर भर के सारे लोगो का ठेका मैंने नहीं ले रखा है। ऐसे ही पैसे बाटूँगा तो खाऊंगा क्या?” बाबूजी भी तैश में आ गए।
“सत्रह साल से तुम्हारे घर की चाकरी कर रही हूँ। आस पड़ोस के घर की कामवालियों के पैसे पूछो, उनसे आधे पैसे लेकर सुबह से रात तक खटती हूँ तुम्हारे यहाँ… तुम्हारे बच्चे पाल पोस कर जवान कर दिए। वही याद करके मेरी मदद कर दो।”
बाबूजी पेपर फेंक कर खड़े हो गए।
“मेरा बेटा बिना इलाज के मर जाएगा…” कहते हुए धन्नो वापस ज़मीन पर दोहरी हो गई।
पर बाबूजी के सपाट चेहरे पर ना तो धन्नो के आँसुओं का असर हुआ और ना ही उसकी चीत्कार का…
धन्नो चोट खाई नागिन सी उठ खड़ी हुई।
जब उसे समझ में आ गया कि इस चौखट पर अब उसे सिवा दुत्कार के कुछ ना मिलेगा तो वह कातर स्वर में बोली – “अच्छा, मेरे इस महीने के पैसे और अगले महीने का एडवांस ही दे दो। कम से कम बच्चे को किसी अच्छे डॉक्टर को तो दिखा दूँ”।
“एडवांस देना मेरे उसूलो के ख़िलाफ़ है और काम किये हुए पंद्रह दिन का महीना भी पूरा नहीं हुआ है और पूरे महीने के पैसे कैसे दे दूँ?” बाबूजी ने कहा और वहाँ से चल दिए।
इतना अपमान, इतनी बेइज्जती… सोचते हुए धन्नों ने हथेलियों से चेहरा ढाँप लिया और फफक उठी।
उसने आस पास देखा पर सब अपने कामों में तल्लीन रहने का उपक्रम कर रहे थे।
उसने आखें रगड़ते हुए धीरे से कहा – “हे ईश्वर, अब तुम ही न्याय करना”।
घर पहुँचकर उसने सबसे पहले बच्चे की साँस देखी। बच्चे ने धीरे से उसे देखा और वापस आँखें मूँद ली।
धन्नो बच्चे को पागलों की तरह चूमती हुई अपनी गरीबी पर बुक्का फाड़ कर रो पड़ी।
उसका रोना सुन आस पड़ोस के दो चार लोग दौड़े-दौड़े आये।
मंगला बोली – “डॉक्टर को तो दिखाना ही पड़ेगा, छोरा तप रहा है बुखार से…”
“कल की सब्जी के पैसे तो है नहीं, कहाँ से दिखाऊँ…” धन्नो ने सूजी आँखों से बच्चे को देखते हुए कहा।
“मैं जिनके घर काम करती हूँ ना, बहुत बड़ा डॉक्टर है वो, बहुत लम्बी-लम्बी लाइन लगती है सुबह से उसके घर के आगे…”
“तब तो बहुत पैसे लेगा” धन्नो ने फटी साड़ी को ऊँगली में घुमाते हुए पूछा।
“अरे, इंसान के भेष में देवता है देवता। आज तक किसी गरीब से पैसे नहीं लिए उसने”।
“ठीक है तो अभी लेकर चलते है” धन्नो को बच्चे को उठाने की कोशिश करते हुए कहा।
पर भूखी प्यासी धन्नो के कदम लड़खड़ा गए और पास खड़े गोकुल ने तुरंत बच्चे को अपनी मजबूत बाहों में उठा लिया।
धन्नो ने सोचा कि जिस देहरी पर रोती गिड़गिड़ाती रही, वह आदमी पल भर को भी नहीं पसीजा और जिन से कुछ कहा भी नहीं, वे सब आज उसका परिवार बनकर साथ खड़े हो गए।
ऑटो के पैसे देने के समय भी धन्नों ने नज़रें नीचे कर ली।
मंगला ने उसका हाथ पकड़ते हुए ऑटो के पैसे दिए और डॉक्टर के घर की ओर बढ़ चली।
पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। वहाँ पर तिल रखने की जगह नहीं थी।
सभी के चेहरे उतरे हुए थे और सब परेशान से बैठे एक दूसरे को देख रहे थे या इधर उधर घूम रहे थे
धन्नों ने सबके चेहरों को देखते हुए सोचा, दुःख चाहे अमीर का हो या गरीब का, एक सा ही होता है।
इतना बड़ा डॉक्टर, पता नहीं बच्चे को देखेगा भी या नहीं… सोचते हुए धन्नों ने सभी देवी देवताओं के नाम ले डाले।
तभी वहाँ हलचल मच गई और तीन चार नर्स के साथ मंगला बाहर आई और बोली – “चलो, डॉक्टर साहब ने अंदर बुलाया है।”
धन्नों के पैर काँप उठे। उसने गोकुल की ओर देखा तो गोकुल गोदी में लिए बच्चे को लेकर नर्स के पीछे चल पड़ा।
डॉक्टर ने बच्चे को देखते ही तुरंत भर्ती करने को कहा और दवाइयाँ लिखकर एक नर्स को पकड़ा दी।
धन्नो का कलेजा मुँह को आ गया।
कहाँ से देगी दवाइयों का पैसा वो, कहीं ये डॉक्टर भी बाबूजी की तरह… नहीं नहीं… ऐसा कुछ नहीं होगा।
तभी डॉक्टर बोला – “बच्चे को तीन चार दिन यहीं रखना पड़ेगा”।
“पैसे नहीं है मेरे पास” कहते हुए धन्नो का चेहरा शर्म और दुःख से लाल हो गया।
“कोई पैसे नहीं लगेंगे। मेरा ही बच्चा है।” कहते हुए डॉक्टर दूसरे मरीज की तरफ बढ़ गया।
मंगला धन्नो के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली – “मैंने तो पहले ही कहा था डॉक्टर साहब मनुष्य के भेष में देवता है”।
धन्नो जितने आशीर्वाद, जितनी दुआएँ, डॉक्टर को दे सकती थी उसने दे डाली यहाँ तक कि अपनी उम्र भी…
चार दिन की पूरी देखभाल और इलाज के बाद बच्चा बिलकुल ठीक हो गया।
मंगला बोली – “तू अब वापस काम पर चली जा वरना काम छूट जाएगा”।
“मेरा मन नहीं है उस पिशाच को देखने का…” धन्नो बाबूजी को याद करते हुए बोली।
“चूल्हा तो जलाना ही है ना, जब दूसरा काम मिल जाए तो छोड़ देना”।
धन्नो के सामने बच्चे का उदास चेहरा आ गया।
वह थके क़दमों से बाबूजी के घर की ओर चल पड़ी।
घर में घुसते ही बाबूजी के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी – “चार दिन के अंदर मेरा एक लाख रुपया खर्चा हो गया पूरी दीवार तोड़ दी तुम लोगो ने… और पता भी नहीं लगा पाए कि सीलन कहाँ से आ रही है”।
धन्नो तेज क़दमों से रसोईघर की ओर मुड़ी।
रसोईघर में दीवारों का मलबा गिरा हुआ पड़ा था। चारों तरफ पानी भरा हुआ था। चार पाँच आदमी दीवार को जगह जगह से तोड़कर पाइप को ठोंक पीटकर देख रहे थे।
बाबूजी… धन्नो ने धीरे से कहा।
“क्या है?” बाबूजी दहाड़े।
“ये सीलन तो उस छोटेवाले गीज़र के पीछे से आ रही होगी ना, उसी का तो पाइप फूटा था तो आपने गीज़र चलाने को मना किया था”।
“हे भगवान… लाख रुपये खर्च होने के बाद ये ध्यान आया”।
बाबूजी उन आदमियों पर बरस पड़े – “कैसे प्लम्बर हो तुम, पूरे रसोईघर का नास कर दिया और ये भी पता नहीं लगा पाए कि कहाँ से पानी आ रहा है”।
“आप ही ने तो मना किया था कि गीज़र कोई मत छूना” अम्मा गुस्से से चीखी।
धन्नो ने देखा कि उसकी जगह कोई नई कामवाली आ गई थी जिसने गर्म पानी के लिए गीज़र चला दिया था।
धन्नों ने उसकी ओर असीम संतुष्टि के साथ देखा और नए काम की तलाश में चल पड़ी।