प्रायश्चित Heart-rending Story of Repentance

प्रायश्चित Heart-rending Story of Repentance

शर्मा जी थोड़ा और आगे की तरफ़ झुकते हुए बोले – “पच्चीस लाख।”

“केस में थोड़ा वक़्त लग सकता है।”

“पचास लाख… मकान मुझे तुरंत खाली चाहिए और अब इससे ज़्यादा मैं दूँगा नहीं।

“पचास लाख… मैं तैयार हूँ… सिर्फ़ एक महीने का वक़्त दीजिये मुझे और साथ ही उस घर का पता भी।

शर्मा जी एक कागज़ पर, पता लिखकर मुस्कुराते हुए, उठ खड़े हुए और बोले – “कल सारा पैसा एडवांस में तुम्हारे पास पहुँच जाएगा।”

जब मैं उस मकान में पहुँचा, तो वहाँ की दुर्दशा देखकर दंग रह गया। सफ़ेद मकान पर जैसे किसी ने कालिख पोत रखी थी। दीवारों का जहाँ तहाँ से उखड़ा हुआ प्लास्टर देखकर साफ़ पता चल रहा था कि वहाँ कई सालों से कोई पुताई नहीं हुई है। मैं थोड़ा सा और आगे बढ़ा, तो गंदा दालान देखकर ऐसा लगा मानों वहाँ जानवर बसते हो। लोहे का दरवाज़ा बुरी तरह जंग खाकर अपने गिरने का इंतज़ार कर रहा था । मेरा मन करा कि इतनी जोर से लात मारूँ कि गेट भरभराकर गिर जाए। मैं झल्लाते हुए बुदबुदाया – “चोर कहीं के… दूसरे के मकान को क़ब्ज़िया कर बैठे हैं और मकान की तो पूरी छीछालेदर कर दी है।”

इधर-उधर देखा, तो कहीं घंटी नहीं थी। मुझे अपनी ही सोच पर हँसी आई कि इस सड़े से मकान में कौन घंटी लगाएगा। मैंने लोहे के दरवाजे को ही संभालते हुए धीरे से ठोका कि कहीं एक धक्के से नीचे ना गिर जाए।

अंदर से किसी बुजुर्ग व्यक्ति की आवाज आई – “कौन है?”

मन तो हुआ कि कहूँ – “तुम्हें धक्के मार कर निकालने के लिए आया हूँ।”

पर प्रत्यक्ष में सिर्फ़ इतना ही कह पाया – “जी, मेरा नाम रोहन है। मिलना है आपसे।”

अभी आया कहते हुए वह बुजुर्ग बाहर चले आए। चौड़ा सा माथा,बड़ी-बड़ी आँखें, आगे से थोड़े गंजे और जो थोड़े बहुत कनपटी पर बाल थे, वो बिल्कुल सफ़ेद। कुर्ता पजामा पहने थे जो सिर्फ़ कहने के लिए ही सफ़ेद था। साबुन और पानी से शायद हज़ारों बार घिसता हुआ अब हल्का पीला हो चुका था। पर उनके चेहरे का बच्चों सा भोलापन और मुस्कुराहट देखते ही बनती थी। मुझे देखते ही इतना खुश हो गए, जैसे मैं उनका सालों पुराना परिचित हूँ।
पर शर्मा जी ने मुझे पहले ही किरायेदारों के भोले चेहरे और चिकनी चुपड़ी बातों से आगाह रहने के लिए कह दिया था। इसीलिए मैंने अपने विचारों को झटका देते हुए कहा – “मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।”

“हाँ-हाँ बेटा, अंदर तो आओ, बाहर कितनी तेज धूप है।” अब जाकर मेरा ध्यान चिलचिलाती हुई तेज धूप और अपने माथे से बहते हुए पसीने की ओर गया।

गेट खोलकर जैसे ही मैंने अंदर कदम बढ़ाया, तो दो मोटे नेवले मेरे पैर के ऊपर से निकल गए। डर के मारे मेरे मुँह से चीख निकल गई।

वह बुजुर्ग हँसते हुए बोले – “अरे बेटा, कोई बात नहीं… मकान बहुत पुराना है ना इसलिए नेवले भी रहने लगे हैं। अच्छा ही है हमारे लिए तो.. हम दोनों बूढ़ा बूढ़ी के साथ कोई रहता भी नहीं और ना ही कभी कोई मिलने के लिए आता है, तो कम से कम चूहे, छछूंदर और नेवले ही हमारा मन बहलाते रहते है।”

मैंने मन में सोचा – “तो तुम भी क्यों नहीं निकल जाते हो यहाँ से… वैसे अच्छा ही हुआ, जो नहीं निकले वरना मुझे पचास लाख रुपए कैसे मिलते।”

घर के अंदर गया तो दिमाग और खराब हो गया। आधी फटी चादर लकड़ी के पलंग पर बिछी हुई थी। गर्मी के मारे मेरा हाल बेहाल हुआ जा रहा था। मैंने छत की ओर ताकते हुए पंखे की ओर देखा। वो इतना पुराना था मानों, बाबा आदम के ज़माने से वहीँ टंगा हो।

मैंने जैसे ही जेब से पसीना पोंछने के लिए रुमाल निकाला, अंकल पंखे का स्विच ऑन करते हुए बोले – “अरे बेटा, यहाँ लाईट बहुत जाती है। मैं तुम्हें हाथ से पंखा कर देता हूँ।” और यह कहते हुए वह हाथ वाला पंखा ले कर मेरे पास बैठ गए। जबकि मैंने कोने में छोटा सा बल्ब जलता देख समझ लिया कि लाईट आ रही है। शायद उन्होंने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए मुझसे झूठ बोला।

तभी वह बोले – “तुम मेरे बेटे की उम्र के हो, इसलिए मुझे अंकल बोल सकते हो। वैसे तुम हो कौन?”

मैंने तुरंत मुस्कुराते हुए झूठ बोला – “बचपन में हम इसी मोहल्ले में रहते थे। अब तो घर याद नहीं आ रहा है,पर आज सुबह अचानक मन हुआ कि मोहल्ले में जाकर किसी से मिल लिया जाए।”

“अरे वाह…” कहते हुए अँकल मेरे गले लग गए और चिल्लाते हुए बोले – “रमा, देखो तो, हमारे पुराने मेहमान आए हैं।”

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