अँकल अपना चश्मा उतार कर कुरते की आस्तीन से अपनी आँखें मसल रहे थे।
अँकल बोले – “अब उसकी यादों के सहारे ही हम दोनों ज़िंदा है। इस कमरे से उस कमरे जाकर बैठते है और कुछ देर रोकर अपना मन हल्का कर लेते है…पर पता नहीं यहाँ से भी मकान मालिक कब निकाल दे?”
मैंने तुरंत पूछा – “क्यों..क्या उनको किराया नहीं मिलता!”
तुमसे क्या छुपाना बेटा…अँकल लाल आँखों को रगड़ते हुए बोले – “शर्मा जी है हमारे मकान मालिक। हमसे बोले, अगर इस मकान में रहना है तो हमें दुगुनी कीमत देकर इसे खरीदना होगा। हम अपने मनु की यादों से दूर नहीं जाना चाहते थे। इसलिए मजबूरीवश उनकी बात हम मान गए। तेरी आँटी के सारे जेवर, उसकी माँ और सास के भी सारे गहने और मेरा सारा पीएफ निकालकर हमने उन्हें पैसे दे दिए। पर बेटा, उन्होंने हमारे साथ धोखाधड़ी की। हमसे बात करते हुए रजिस्ट्री के कागज़ात अपने साथ ले गए और हमें भिखारी बनाकर छोड़ दिया।”
उनकी आवाज़ के दर्द ने मुझे जैसे सुन्न कर दिया। मैं जैसे आसमान से गिरा। मैंने गुस्से से कहा – “तो आपने क्यों कोई अच्छे वकील नहीं कर लिया?”
अँकल ने मुझे सूनी आँखों से फीकी मुस्कान लिए देखा।
मैं अपने ही प्रश्न पर शर्मिंदा हो उठा। मुझे अपने ओछेपन ओर मक्कारी पर इतनी शर्म आ रही थी कि क्या बताऊँ। जिस आदमी को मैं घर से बेघर करने आया था, वो बुढ़ापे में बैठा मुझे पँखा झल रहा था। उसकी बीवी मुझे अपने मुँह का निवाला दे रही थी, मेरे पैर मल रही थी। मैं कहाँ जाकर डूब मरुँ। कितने अरमान थे मेरी माँ कि मैं वकील बनकर गरीबों को न्याय दिलवाऊंगा, जिनके पास पैसे नहीं होंगे उनकी पैरवी करूँगा। पर लालच के दलदल में गिरने के बाद मैं उसमें धँसता ही चला गया। अँकल की फीकी मुस्कान ने जैसे मुझे आइना दिखा दिया। सच ही तो है, जब तक मुझ जैसे पैसों पर बिकने वाले वकील इस समाज में रहेंगे, कोई भी सच्चा आदमी न्याय नहीं पास सकेगा।
मेरी तबियत अब पहले से कुछ बेहतर लग रही थी। मैं पता नहीं कब सो गया। जब उठा तो शाम हो चुकी थी। अँकल, आँटी से कुछ कह रहे थे।
मैंने पलँग से उठकर, उन दोनों के पैर छुए और कहा – “मैं फ़िर आऊँगा”
अँकल ये सुनकर गदगद हो उठे और मुझे गले से लगा लिया।
गली के मोड़ से मैंने देखा कि वे दोनों दरवाज़े पर खड़े मुझे ही देख रहे थे। हज़ारों लोगो से मिला पर आज तक निःस्वार्थ भाव से किसी ने भी मुझे ऐसा अपनापन और प्यार नहीं दिया।
रास्ते भर, मेरे मन में हज़ारों सवाल जवाब चल रहे थे। मैं कब घर पहुँचा मुझे पता ही नहीं चला।
शाम को शर्मा जी का फ़ोन आया और वे खिलखिलाकर हँसते हुए बोले-“तुम्हारे घर पर दस मिनट में पचास लाख रुपये पहुँचा रहा हूँ। मिलने के बाद फ़ोन कर देना।”और ये कहते हुए उन्होंने फ़ोन काट दिया।
करीब पँद्रह मिनट बाद दरवाज़े की घंटी बजी और मेरे नौकर ने मेरे कमरे में मुझे एक पैकेट लाकर थमा दिया।
मैंने शर्मा जी को फ़ोन किया।
“हाँ, तो कब तक करवा रहे हो मकान खाली…” शर्मा जी ने छूटते ही पूछा।
“उस घर के आप दुगुने पैसे ले चुके हो और अब अगर उस मकान पर नज़र भी डाली तो आपके सारे कारनामों का काला चिट्ठा मेरे पास है, जिसमें से आधा मैंने अपने दोस्तों के यहाँ रखवाया हुआ है। ये पचास लाख जिनके है उन्हीं के पास वापस जा रहे है और उस मकान को तो तुरंत भूल जाइये।”
शर्मा जी ने कुछ नहीं कहा और फ़ोन काट दिया और मैं पैकेट लेकर, अँकल के घर की ओर चल पड़ा।