महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी: पुनर्जन्म

पुनर्जन्म: महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी

पुनर्जन्म: मंजरी शुक्ला [Page IV]

दुःख जब मेरे सहने के बाहर हो गया तो तकिये को मुहँ में दबाकर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। बीस सालों में जिन लोगों को कभी मैंने एक समय भी भूखा नहीं रहने दिया उन लोगों ने आज मेरे मरने जीने की कोई परवाह नहीं करते हुए आराम से ऐसे खाया पिया जैसे मैं इस समय घर पर हूँ ही नहीं। अगर घर में जानवर भी होता तो उसे भी रोटी मिल जाती और यह सोचते सोचते अचानक ही मेरा ध्यान अपनी बंद मुट्ठी पर गया, जो ना जाने कब अरविन्द जी ने एक कागज का पुर्जा पकड़ा कर बंद कर दी थी।

मैंने झटपट अपने आँसूं पोंछे और वो मुड़ा-तुड़ा कागज़ का पुर्जा खोला जिसमें हरे रंग की स्याही से लिखा हुआ था –

“तुम शायद मुझे पहचान नहीं पाई अमु, हम बचपन में एक दूसरे के पड़ोसी थे। तुम घंटों मेरे घर आकर मेरी बहन मीनू के साथ खेलती थी और फिर जब तुम दसवी कक्षा में थी तो तुम्हारे पापा का यहाँ से ट्रान्सफर हो गया था, याद हैं मै बहुत रोया था मीनू से लिपटकर… तुमने कई बार पूछा पर मीनू को मैंने ही बताने को मना कर दिया था। सोचा था बड़ा हो जाऊँगा तो हमेशा के लिए तुम्हें अपना बना कर रख लूँगा। तुम्हें बहुत ढूँढा अनु, बहुत ढूँढा पर तुम्हारा पता नहीं चल पाया था। पता नहीं वो कैसे लोग होते हैं अनु, जो समय के साथ अपना प्यार भी बदल लेते हैं पर मैं नहीं भूल पाया कभी तुम्हें। पार्क में तुम्हें देखते ही मेरी धड़कन जैसे थम सी गई थी। मैंने तुम्हारे बारे में सब पता कर लिया। मेरे लिए तुम्हारे बारे में पता करना बाएँ हाथ का खेल भी था, क्योंकि यहाँ का कलेक्टर हूँ मैं… वो भी तुम्हारे ही कारण बना हूँ। याद हैं तुम मनु से हमेशा कहा करती थी कि तुम किसी कलेक्टर से ही शादी करोगी। मैं तुम्हारे घर परिवार के बारे में सब जानता हूँ अनु, पर मैं आज भी तुम्हारी राह देख रहा हूँ उसी जगह पर जहाँ तुम बरसों पहले मुझे छोड़कर चली गई थी… अरविन्द

काँपतें हाथों से पत्र पढ़ते हुए मेरी आखों के सामने मेरी सबसे अच्छी सहेली मीनू और उसके शर्मीले से भाई अरविन्द की तस्वीर मेरे आगे घूम गई।

मैं कुछ सोचू इसके पहले ही मेरी सास कमरे में दाखिल हुई जिनके पीछे पीछे मेरे पति भी थे और हमेशा की तरह अपनी तेज और रौबदार आवाज़ में बोली – “गैर मर्द ने छुआ हैं तुझे, आज स्नान करना तो थोड़ा सा गंगा जल भी डाल लेना पानी में।”

पीछे से मेरे पति धीमे से बोले – “वो था कौन वैसे?”

गुस्से और नफरत से मेरा सर्वांग जल उठा। मैंने आखिरी बार उन सबके चेहरो पर नज़र डाली और अपना मंगलसूत्र उतारकर पति के हाथों में थमाते हुए कहा – “देवता” और बिना किसी जवाब की प्रतीक्षा करे बगैर मैं चल दी चिठ्ठी मैं बिना किसी छह के और बिना किसी शर्त के दिए गए पते पर, उसके पास जो बरसों से सिर्फ मुझे और केवल मुझे ही प्यार करता हैं…

मंजरी शुक्ला

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