असलियत: समनीत अब सातवीं कक्षा में थी। उसके पिताजी रिक्शा चालक थे। एक सुबह समनीत स्कूल के गेट पर पहुंची तो उसने वहां एक छोटे से लड़के को देखा। उसकी एक बाजू नहीं थी। वह कुछ सामान बेच रहा था। उसके पास गुब्बारे, पैंसिलें, रबड़ें, कुछ कापियां और कुछ छोटे-छोटे खिलौने भी थे। उसने वी शेप की अपनी पुरानी सी चप्पल को सूई-धागे से सिल रखा था। इतनी ठंड में उसे सुबह-सुबह सामान बेचता देख कर समनीत का मन पसीज गया। वह उसके पास रुक गई। फिर न जाने क्या सोच कर उसने अपने बैग से 10 रुपए निकाले और 2 पैंसिलें खरीद लीं, जबकि उसके पास पहले ही एक नई पैंसिल थी।
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प्रार्थना आरंभ हो गई लेकिन समनीत का ध्यान उस लड़के में ही था। सोच रही थी, “बेचारा इतनी ठंड में सुबह-सुबह आकार सामान बेच रहा है। उसके पास बूट तो दूर की बात, जुराबें भी नहीं हैं। मुझे तो जूतों में भी ठंड लग रही है”।
वह लड़का हर रोज स्कूल के गेट के बाहर आकर खड़ा हो जाता और सामान बेचता। समनीत स्कूल पहुंचती तो गेट पर वही लड़का पहले से ही आ चुका होता। अब उस लड़के की समनीत से जान पहचान हो गई थी। वह उसे “दीदी-दीदी” बोलने लगा। उस लड़के का अपने प्रति ऐसा अच्छा और आदरपूर्वक व्यवहार देख कर समनीत के मन में भी उसके लिए स्नेह पैदा होने लगा। समनीत उस लड़के से लगभग तीन वर्ष बड़ी थी। एक दिन समनीत कोई वस्तु खरीदने के बहाने उसके पास आ खड़ी हुई। उसके साथ उसकी सहेलियां रानी और शालू भी थीं। उस लड़के ने जब समनीत को “दीदी” कह कर संबोधित किया तो रानी और शालू ठहाके लगाने लगीं।
अगले दिन कक्षा में आते ही रानी और शालू ने शोर मचा दिया, “अरे जानते हो, समनीत का एक और भाई भी है लेकिन वह बेचारा गेट पर खड़ा होकर गुब्बारे बेचता है”।
इस तरह उस लड़के को लेकर कई और मजाक भी समनीत को सुनने को मिले लेकिन उसने किसी की कोई परवाह नहीं की। अब तक समनीत जान चुकी थी कि उसका नाम बब्बू है। उसे यह भी पता चला कि वह पांचवीं कक्षा में पढ़ता था, जब उसकी मां गुजर गई थी। उसके पिता जी भी खिलौने बेचने का काम करते थे। उस लड़के की चार बहनें और थीं। अपने बच्चों को पढ़ाना पिता के वश में नहीं था।
सर्दी बढ़ती जा रही थी लेकिन बब्बू अभी तक बूट नहीं खरीद सका था।
एक दिन समनीत ने पूछ ही लिया, “बब्बू क्या तुमको ठंड नहीं लगती”?
“नहीं दीदी, मैं ठंड सहने का आदी हो गया हूं”। बब्बू ने कहा लेकिन समनीत को पता था कि यह गरीबी के कारण हो था।
एक दिन समनीत ने पापा से कहा, “पापा मुझे 200 रुपए चाहिएं”।
“किसलिए”? पापा ने पूछा।
“स्कूल में सर ने मंगवाए हैं। बिल्डिंग फंड देना है।”
“स्कूल बालों का पेट भी पता नहीं कब भरेगा? कभी ये, कभी वो फंड। आए दिन मांगते ही रहते हैं। सारा-सारा दिन पसीना बहाना पड़ता है रुपया कमाने के लिए”। आखिर आनाकानी करते हुए पिता जी ने दस-दस, बीस-बीस के रुपए के नोट गिनकर उसे 200 रुपए पकड़ा दिए।
शाम को समनीत की सहेली शालू उसके घर आई। सहज ही समनीत की माता जी ने उससे पूछा, “शालू तुम्हारे स्कूल वालों का लालच कब खत्म होगा? आज फिर तुमसे 200 रुपए मांग लिए हैं”।
“क्या आंटी जी? दो-दो सौ रुपए? किससे मांगे हैं”? फिर वह समनीत की तरफ मुड़ी और पूछने लगी, “कब? किससे मांगे हैं दो-दो सौ रुपए? हम से तो नहीं मांगे”।
समनीत को काटो तो खून नहीं। उसका रंग पीला पड़ गया। अब उसने सच बोलना ही ठीक समझा, “मम्मी मुझे क्षमा करें। वास्तव में मेरे स्कूल के गेट पर एक छोटा सा अपंग लड़का खिलौने बेचता है। इतनी सर्दी में उसके पास टूटी सी चप्पल ही थी। मैंने उन 200 रुपयों के उसे नए बूट लेकर दिए हैं। आप मुझे अगले महीने का जेब खर्च मत देना”।
समनीत के पिता जी ने घर में प्रवेश किया। उन्होंने सारी बात सुन ली थी। असलियत सुन कर वह बोले, “तुमने झूठ बोल कर अच्छा तो नहीं किया लेकिन तुम्हारा मकसद किसी बेहद जरूरतमंद बच्चे की मदद करना था इसलिए तुम्हें डांट नहीं पड़ेगी बल्कि तुम्हारी नेक भावना के लिए मैं तुम्हें शाबाशी देता हूं। तुम्हारे जेब खर्च में कोई कटौती नहीं होगी”।
समनीत पापा से लिपटती हुई बोली, “धन्यवाद पापा”!